जीवित समयसार - अमृत माँ जिनवाणी से - ९५
? अमृत माँ जिनवाणी से - ९५ ?
"जीवित समयसार"
एक दिन पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज कहने लगे- "आत्मचिंतन द्वारा सम्यकदर्शन होता है। सम्यक्त्व होने पर दर्शन मोह के आभाव होते हुए भी चरित्र मोहनीय कर बैठा रहता है। उसका क्षय करने के लिए संयम को धारण करना आवश्यक है। संयम से चरित्र मोहनीय नष्ट होता होगा। इस प्रकार सम्पूर्ण मोह के क्षय होने से, अरिहंत स्वरुप की प्राप्ति होती है।"
मैंने(लेखक) ने कहा "महाराज ! आपके समीप बैठने पर ऐसा लगता है कि हम जीवित समयसार के पास बैठे हों। आप आत्मा और शरीर को न केवल भिन्न मानते है तथा कहते है किन्तु प्रव्रत्ति भी उसी प्रकार कर रहे हैं। शरीर आत्मा से भिन्न है, परभाव रूप है, फिर खिलाने-पिलाने आदि का व्यर्थ क्यों प्रयत्न किया जाय? यथार्थ में इस समय आपकी आत्मप्रवृत्ति अलौकिक है।"
? सातवाँ दिन - २० अगस्त १९५५ ?
छह दिनों के उपरांत आज पूज्यश्री ने आज जल ग्रहण किया। कमजोरी के कारण सिर में भी दर्द हो गया।
शरीरिक-स्थिति कमजोर होते जाने पर भी महाराज की चर्या पूर्ववत जारी रही।
? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
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