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विनोद में संयम की प्रेरणा - अमृत माँ जिनवाणी से - ९८


Abhishek Jain

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?     अमृत माँ जिनवाणी से - ९८     ?


         "विनोद में संयम की प्रेरणा"


               कोल्हापुर के एक भक्त की कल्याणदायिनी मधुर वार्ता है। उनका नाम बाबूलाल मार्ले है। संपन्न होते हुए संयम पालना और संयमीयों की सेवा-भक्ति करना उनका व्रत है। वे दो प्रतिमाधारी थे। 

                   वारसी से महाराज कुंथलगिरि को आते थे। महाराज का कमण्डलु उठाने लगे, तो महाराज ने कह दिया- "तुम हमारे कमण्डलु को हाथ मत लगाना। उसे मत उठाओ।" ये शब्द सुनते ही मार्ले चकित हुए।

                महाराज कहने लगे- "यदि दीक्षा लेने की प्रतिज्ञा करने का इरादा हो, तो कमण्डलु लेना, नहीं तो हम अपना कमण्डलु खुद उठाएंगे।"

              वे भाई विचार में पड़ गए। महाराज के पवित्र व्यक्तित्व ने उस आत्मा के अंतःकरण पर प्रभाव डाला। वे बोले- "महाराज ! कुछ वर्षो के बाद अवश्यमेव मै क्षुल्लक की दीक्षा लूँगा। महाराज को संतोष हुआ।

           ?कुतर्क का समाधान?

     
                   यहाँ कोई यह कुतर्क कर सकता है, कि महाराज का ऐसा आग्रह करना अच्छा नहीं लगता। जिनको संयम और व्रत लेना होगा, वे स्वयं लेंगे। ऐसी प्रेरणा यथा आग्रह ठीक नहीं है।

                  शांतभाव से विचार करने पर विदित होगा कि सन्मार्ग पर चलने के हेतु जीव को प्रेरणा देना आवश्यक है। पतन की ओर किसी को उपदेश की जरुरत नहीं पड़ती है।

                  जल की धारा स्वतः नीचे की ओर जाती है, उसे ऊँचा उठाने के लिए और ऊपर की भूमि पर पहुँचाने के लिए विशेष बल तथा शक्ति की आवश्यकता पड़ा करती है। यही हाल जीव की परिणति का है। उसे उर्ध्वमुखी बनाने के लिए सतप्रयत्न तथा उद्योग अत्यंत आवश्यक है। इस कारण से वे सदा धर्मोपदेश दिया करते थे।

?   १० वां दिन - २३ अगस्त १९५५   ?

                        आज जल ग्रहण किया। दोनों समय जनता को दर्शन देकर कृतकृत्य किया। दर्शनार्थियों का तांता लग गया। दूर-दूर से जनता उमड़ पड़ी।

?    स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती का    ?

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