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११०५ दिन बाद अन्नाहार - अमृत माँ जिनवाणी से - १०४


Abhishek Jain

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?     अमृत माँ जिनवाणी से - १०४     ?


           "११०५ दिन बाद अन्नाहार"


                    १६ अगस्त १९५१ को धर्म पर आये संकट से रक्षा के उपरांत रक्षाबंधन के दिन इस युग के अकम्पन ऋषिराज शान्तिसागरजी महाराज ने तथा उनके अतिशयभद्र वीतरागी तपस्वी शिष्य मुनि नेमिसागर ने अन्नाहार लिया।

                आचार्य महाराज का अन्नाहार ११०५ दिनों के पश्चात् हुआ था। रोगी व्यक्ति को जब दो चार दिन को अन्न नहीं मिलता है, तो वह निरंतर अन्न को ही तरसता है। अन्न को तो प्राण कहता है। आचार्यश्री की तपस्या अद्भुत थी। वे यथार्थ में तपोधन थे।

         बारामती में एक पण्डाल में भी बड़ा चौका बनाया गया था। सौभाग्य से उसमे ही महाराज का आहार हुआ था। सभी लोगों को इस मंगल प्रसंग पर उत्तम पात्र की सेवा का अपूर्व सौभाग्य मिल सका। आहार के मंगलमय ऐतिहासिक अवसर पर आकाश से थोड़ी-२ जल बिंदुओं की वर्षा हो रही थी, मानों मेधकुमार जाति के देव अपना आनंद व्यक्त कर रहे हों। अद्भुत दृश्य था वह प्रकृति भी पुलकित हो रही थी।

         महान तपस्वी की ११०० दिन बाद पूर्ण हुई सफलता पर आसपास के सभी लोगों में चर्चा थी। लोग महान आचार्यश्री के तपःपूत जीवन के प्रति श्रद्धापूर्ण उद्गार व्यक्त करते थे। बम्बई आदि बड़े-बड़े नगरों के विचारक वर्ग बातें करते थे, तपस्वी का नाम ले इंद्रियों का पोषण करने वाले साधु दुनिया भर में मिलते है, किन्तु ऐसे महात्मा कहाँ हैं, जिन्होंने अपने पवित्र धर्म और संस्कृति के संरक्षणार्थ प्रिय प्राणों की परवाह नहीं की, किन्तु जिसके पूण्य से उनकी तपस्या सफल हुई ओर जैन धर्म की पवित्रता अक्षुण्ण रह गई।

? सोलहवाँ दिन - २९ अगस्त १९५५ ?


          आज पूज्यश्री ने जल ग्रहण नहीं किया। पं. मख्खनलालजी शास्त्री मोरेना से दर्शनार्थ पधारे। आज के दिन दोपहर में आचार्यश्री गुफा से बाहर नहीं पधारे। अतः जनता पुण्य लाभ नहीं कर सकी। महाराज के शरीर को कमजोरी कुछ बड़ गई।


?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?

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