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पूर्ण स्वावलंबी - अमृत माँ जिनवाणी से - ९०


Abhishek Jain

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?     अमृत माँ जिनवाणी से - ९०     ?


                  "पूर्ण स्वावलंबी"

   

                        मैंने (लेखक ने) २४ अगस्त के प्रभात में पर्वत पर  कुटी  में  आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के दर्शन किये  और  नमोस्तु निवेदन किया। महाराज बोले, "बहुत देर में आये। आ गए, यह बहुत अच्छा किया। बहुत अच्छा हुआ तुम आ गए। बहुत अच्छा किया।" इस प्रकार चार बार पूज्यश्री के शब्दों को सुनकर स्पष्ट  हुआ  कि उन श्रेष्ट साधुराज के पवित्र    अंतःकरण में मेरे  प्रति करुणापूर्ण स्थान अवश्य है।

                मैंने कहा- "महाराज ! श्रेष्ट तपस्यारूप यम् समाधि का महान निश्चय करके आपने जगत को चमत्कृत कर दिया है। आपका अनुपम सौभाग्य है। इस समय मै आपकी सेवार्थ आया हूँ। शास्त्र सुनाने की आज्ञा हो या स्त्रोत पढ़ने आदि का आदेश हो, तो मै सेवा करने को तैयार हूँ।"

              महाराज बोले- "अब हमें शास्त्र नहीं चाहिए। जीवन भर सर्व शास्त्र सुने । खूब सुने, खूब पढ़े। इतने शास्त्र सुने की कंठ भर चूका है। अब हमें शास्त्रों की जरुरत नहीं है। हमें आत्मा का चिन्तवन करना है। मै इस विषय में स्वयं सावधान हूँ। हमे कोई भी सहायता नहीं चाहिए।"

              महाराज की वीतराग भाव पूर्ण वाणी को सुन मन बड़ा संतुष्ट हुआ। सचमुच में जिस महापुरुष के ये वाक्य हों 'शास्त्र ह्रदय में भरा है', उन्हें ग्रन्थ के अवलम्बन की क्या आवश्यकता है ? उन्होंने शास्त्र पढ़कर उस रूप स्वयं का जीवन बनाया था। उनका जीवन ही शास्त्र सदृश था।

?   द्वितीय दिन - १५ अगस्त १९५५  ?

             आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने द्वितीय दिन जल नहीं लिया। मध्यान्ह उपरांत तीन बजे शान्तिसागर दिगम्बर जैन जिनवाणी जिर्णोद्धारक संस्था, बम्बई की ओर से ताम्र पत्रों पर उत्कीर्ण श्री धवल, जय धवल, एवं महा धवल सिद्धांत ग्रन्थ आचार्यश्री को समर्पित किये गए।

                महाराज की आज्ञानुसार फलटण (महा)द्वारा प्रकाशित रत्नकरण्ड श्रावकाचार महाराज को भेंट किया गया। इस अवसर पर महाराज ने श्रुतोद्धार के ऊपर मार्मिक प्रवचन दिया।

?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?

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