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विचित्र घटना एवं भयंकर प्रायश्चित ग्रहण - अमृत माँ जिनवाणी से - ६८

?     अमृत माँ जिनवाणी से - ६८     ? "विचित्र घटना एवं भयंकर प्रायश्चित ग्रहण"                     निर्ग्रन्थ रूप में आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज का दूसरा चातुर्मास नसलापुर में व्यतीत कर विहार करते हुए ऐनापुर पधारना हुआ। यहाँ एक विशेष घटना हो गई।                    शास्त्र में मुनिदान की पद्धति इसी प्रकार कही गई है कि गृहस्थ अपने घर में जो शुद्ध आहार बनाते हैं, उसे ही वह महाव्रती मुनिराज को आहार के हेतु अर्पण करें। दूसरे के घर की सामग्री लाकर कोई दे, तो ऐसा आहार मुनियों क

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जयपुर में भयंकर संकट में मेरुवत स्थिरता - अमृत माँ जिनवाणी से - ६७

?     अमृत माँ जिनवाणी से -  ६७     ?  "जयपुर में भयंकर संकट में मेरुवत स्थिरता"                 जयपुर में ख़ानियो की नशिया में आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने निवास किया था।                  एक दिन नशिया के द्वार को किसी भाई ने भूल कर बंद कर दिया, पवन पर्याप्त मात्रा में नहीं पहुँचने से महाराज को दम घुटने से मूर्छा आ गई।                     उसके पूर्व में चिल्लाकर दरवाजा खुलवा लेना या बाहर जाने के लिए हो हल्ला करना उनकी आत्मनिष्ठा पूर्ण पद्धति ने प्रतिकूल थी।          

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उद्धार का भाव जीवन को पवित्र बनाना - अमृत माँ जिनवाणी से - ६६

?     अमृत माँ जिनवाणी से - ६६     ?  "उद्धार का भाव जीवन को पवित्र बनाना"                  आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने अपने उपदेश द्वारा अनेक हरिजनों का सच्चा उद्धार किया है। पाप प्रवृतियों का त्याग ही आत्मा को ऊँचा उठाता है। महाराज के प्रति भक्ति करने वाले बहुत से चरित्रवान हरिजन मिलेंगे।                     उन्होंने अपनी करुणा वृत्ति द्वारा सभी दीन दुखी जीवो को सत्पथ पर लगाया है। आठ वर्ष पूर्व हमे शेड़वाल में आचार्य महाराज का व्रत धारक शुद्र शिष्य मिला था। उसने मद्य,

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हरिजनों पर प्रेम दृष्टि - अमृत माँ जिनवाणी से - ६५

?     अमृत माँ जिनवाणी से - ६५     ?                "हरिजनों पर प्रेम दृष्टि"                एक बार आचार्यश्री शान्तिसागर जी महाराज से पूंछा- "महाराज हरिजनों के उद्धार के विषय में आपका क्या विचार है?                   महाराज कहने लगे- "हमें हरिजनों को देखकर बहुत दया आती है। हमारा उन बेचारों पर रंचमात्र भी द्वेष नहीं है।                         गरीबी के कारण वे बेचारे अपार कष्ट भोगते हैं। हम उनका तिरस्कार नहीं करते हैं। हमारा तो कहना तो यह है कि उन दीनों का आर्थिक कष्ट दू

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धर्म में अरुचि क्यों ? - अमृत माँ जिनवाणी से - ६४

?     अमृत माँ जिनवाणी से - ६४     ?                "धर्म में अरुचि क्यों?"                     आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने उनके शिष्य मुनिश्री वीरसागरजी महाराज को आचार्य पद प्रदान किया था।                 एक बार आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज से प्रश्न किया गया- "महाराज ! महाराज आजकल अन्य लोगो की जैनधर्म में रुचि नहीं है। जैनी क्यों अल्प संख्या वाले है?                      उन्होंने कहा - "जौहरी की दुकान में बहुत थोड़े ग्राहक रहते हैं, फिर भी उसका अर्थलाभ विपुल मात्

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मुनिमार्ग के सच्चे सुधारक - अमृत माँ जिनवाणी से - ६३

?     अमृत माँ जिनवाणी से - ६३     ?           "मुनि मार्ग के सच्चे सुधारक"                 आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के संबंध में आचार्यश्री वीरसागरजी महाराज कहने लगे- "आचार्य महाराज ने हम सब का अनंत उपकार किया है। उन्होंने इस युग में मुनिधर्म का सच्चा स्वरूप आचरण करके बताया था।                     उनके पूर्व उत्तर में तो मुनियों का दर्शन नहीं था और दक्षिण में जहाँ कहीं मुनि थे, उनकी चर्या विचित्र प्रकार की थी। वे दिगम्बर मुनि कहलाते भर थे, किन्तु ऊपर से एक वस्त्र ओढ़े

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जगत के गुरु - अमृत माँ जिनवाणी से - ६२

?     अमृत माँ जिनवाणी से - ६२     ?                     "जगत के गुरु"                        आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के बारे में आचार्यश्री वीरसागरजी महाराज संस्मरण में कहने लगे- "उनकी वाणी में कितनी मिठास, कितना युक्तिवाद और कितनी गंभीरता थी, यह हम व्यक्त नहीं कर सकते।                  महाराज, जब आलंद (निजाम राज्य में) पधारे, तब उनका उपदेश वहाँ मुस्लिम जिलाधीश के समक्ष हुआ।                उस उपदेश को सुनकर वह अधिकारी और उनके सरकारी मुस्लिम कर्मचारी इतने प्रभावित

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गंभीर प्रकृति - अमृत माँ जिनवाणी से - ६१

?    अमृत माँ जिनवाणी से - ६१    ?                  "गंभीर प्रकृति"                 आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के शिष्य आचार्यश्री वीर सागरजी महाराज ने अपने गुरु आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के संस्मरण में बताया कि-                   आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज आहार में केवल दूध और चावल लेते थे। अत्यंत बलवान और सुदृढ शरीर में वह भोज्य पदार्थ थोड़े ही देर में पच जाता था, फिर भी महाराज ने यह कभी नही कहा कि गृहस्थ लोग विचारहीन हैं, एक ही पदार्थ को देते हैं।        

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चोर पर करुणा - अमृत माँ जिनवाणी से - ६०

?    अमृत माँ जिनवाणी से - ६०    ?                "चोर पर करुणा"                               आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के गृहस्थ जीवन एक घटना पर वर्धमानसागर महाराज ने इस प्रकार प्रकाश डाला था-               "गृहस्थ अवस्था मे एक दिन महाराज, शौच के लिए खेत में गए थे, तो कि क्या देखते हैं कि हमारा ही नौकर एक गट्ठा ज्वारी चोरी कर के ले जा रहा था। उस चोर नौकर ने महाराज ने देख लिया।                 महाराज की दृष्टि भी उस पर पड़ी। वे पीठ करके चुपचाप बैठ गए। उनका भाव था कि

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क्रांतिकारी धार्मिक संतराज - अमृत माँ जिनवाणी से - ५९

?    अमृत माँ जिनवाणी से - ५९    ?           "क्रांतिकारी धार्मिक संतराज"                   इस प्रकार शान्तिसागर जी महाराज के जीवन मे अवर्णनीय बाधाएँ, जो पिछले प्रसंगों में वर्णित की गई हैं, आती रहीं, किन्तु ये शान्तिसागर महाराज शांति के सागर ही रहे आये आये और कभी भी 'ज्वाला प्रसाद' नहीं बने।                  धीरे धीरे समय बदला और लोगो को महाराज की क्रियाओं का ज्ञान हो गया। इससे विध्न की घटा दूर हो गई। इस प्रकाश में तो महाराज प्रचलित मिथ्या पृव्रत्तियों का उच्छेद करने वाले प

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परम्परा वश अपार विघ्न - अमृत माँ जिनवाणी से - ५८

?    अमृत माँ जिनवाणी से - ५८    ?             "परम्परा वश अपार विध्न"                  उस समय के मुनि लोग भी कहने लगे कि ऐसा करने से काम नहीं होगा। ये पंचम काल है। इसे देखकर ही आचरण करना चाहिए। ऐसी बात सुनकर आगम भक्त शान्तिसागर महाराज कहते थे, "यदि शास्त्रानुसार जीवन नहीं बनेगा, तो हम उपवास करते हुए समाधिमरण को ग्रहण करेंगे, किन्तु आगम की आज्ञा की उलंघन नहीं करेंगे।"                   उस समय की परिस्थिति ऐसी ही विकट थी, जैसे की हम पुराणों में, आदिनाथ भगवान के समय विधमान पढ़त

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क्षुल्लक दीक्षा में परम्परा वश अपार विघ्न - अमृत माँ जिनवाणी से - ५७

?     अमृत माँ जिनवाणी से - ५७     ? "क्षुल्लक जीवन में परम्परा वश अपार विध्न"                   आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज बचपन से ही महान स्वाध्यायशील व्यक्ति थे। वे सर्वदा शास्त्रो का चिंतन किया करते थे। विशेष स्मृति के धनी होने के कारण पूर्वापर विचार कर वे शास्त्र के मर्म को बिना सहायक के स्वयं समझ जाते थे। इसलिए उन्हे प्रचलित सदाचार की प्रवृत्ति में पायी जाने वाली त्रुटियों का धीरे-धीरे शास्त्रों के प्रकाश मे परिज्ञान होता था।                एक दिन महाराज ने कहा था,

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दीक्षा के समय व्यापक शिथिलाचार - अमृत माँ जिनवाणी से - ५६

?    अमृत माँ जिनवाणी से - ५६    ?     "दीक्षा के समय व्यापक शिथिलाचार"             एक दिन शान्तिसागरजी महाराज से ज्ञात हुआ कि जब उन्होंने गृह त्याग किया था, तब निर्दोष रीति से संयमी जीवन नही पलता था।           प्रायः मुनि बस्ती में वस्त्र लपेटकर जाते थे और आहार के समय दिगम्बर होते थे।            आहार के लिए पहले से ही उपाध्याय ( जैन पुजारी ) गृहस्थ के यहाँ स्थान निश्चित कर लिया करता था, जहाँ दूसरे दिन साधु जाकर आहार किया करते थे।         ऐसी विकट स्थिति जब मुनियों

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गिरिनारजी में ऐलक दीक्षा - अमृत माँ जिनवाणी से - ५५

?     अमृत माँ जिनवाणी से - ५५     ?             "गिरिनारजी में ऐलक दीक्षा"                        जब पूज्य क्षुल्लक शान्तिसागरजी महाराज कुम्भोज बाहुबली में विराजमान थे, तब कुछ समडोली आदि के धर्मात्मा भाई गिरिनारजी की यात्रा के लिए निकले और बाहुबली क्षेत्र के दर्शनार्थ वहाँ आये और महाराज का दर्शन कर अपना जन्म सफल माना। उन्होंने महाराज से प्रार्थना की कि नेमिनाथ भगवान के निर्वाण से पवित्र भूमि गिरिनारजी चलने की कृपा कीजिए।                शान्तिसागरजी महाराज की तीर्थभक्ति असाधा

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अद्भुत युग - अमृत माँ जिनवाणी से - ५४

☀इस प्रसंग को आप जरूर पढ़े। इस प्रसंग को पढ़कर आपको अनुभव होगा कि कैसी विषम स्थितियों मे आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने दृढ़ता के साथ अपने अत्म कल्याण के मार्ग पर प्रवृत्ति की, जिसका ही परिणाम था कि मुगल साम्राज्य आदि के समय क्षतिग्रस्त हुई हमारी जैन संस्कृति का समृद्ध रूप अब पुनः निर्ग्रन्थ गुरुओ के दर्शन के रूप मे हमारे सामने है। ?     अमृत माँ जिनवाणी से- ५४     ?                     "अद्भुत युग"           मुनिश्री वर्धमान सागरजी जो आचार्यश्री शान्तिसागर जी महाराज के ग

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क्षुल्लक दीक्षा - अमृत माँ जिनवाणी से - ५३

?    अमृत माँ जिनवाणी से - ५३    ?                 "क्षुल्लक दीक्षा"                     पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के क्षुल्लक दीक्षा के वर्णन मुनि वर्धमान सागरजी करते हुए लेखक को बताते हैं कि-                 देवेन्द्र कीर्ति महाराज, सतगोड़ा पाटिल की पाटिल की परिणति से पूर्ण परिचित थे, अतः उनके इशारे पर उत्तूर में दीक्षा मंडप सजाया गया। पाटिल को तालाब पर ले जाकर स्नान कराया गया। पश्चात वैभव के साथ उनका जलूस निकाला गया। उन्होंने स्वच्छ नवीन वस्त्र धारण किए थे। गाजे-

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आचार्यश्री की विरक्ति का क्रम - अमृत माँ जिनवाणी से - ५२

?    अमृत माँ जिनवाणी से - ५२    ?        "आचार्यश्री की विरक्ति का क्रम"         आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के जीवनी के लेखक श्री दिवाकरजी महाराज के गृहस्थ जीवन के बड़े भाई, जो उस समय मुनि श्री वर्धमान सागर जी के रूप विद्यमान थे उनसे आचार्यश्री के जीवन के बारे में जान रहे थे। उन्होंने आचार्यश्री की विरक्ति के बारे में बताया।                             उन्होंने कहा माघ मास में माता की मृत्यु होने के पश्चात महाराज के ह्रदय में वैराग्य का भाव वृद्धिगत हुआ। भोज से २२ मील दूर

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?जाप का क्रम - अमृत माँ जिनवाणी से - ५१

?    अमृत माँ जिनवाणी से - ५१    ?                  "जाप का क्रम"            चरित्र चक्रवर्ती ग्रंथ के लेखक दिवाकरजी, पूज्य मुनिश्री वर्धमान सागर के पास उनके दर्शनों के लिए जाया करते थे। जो गृहस्थ जीवन में आचार्यश्री शान्तिसागर जी महाराज के बड़े भाई थे। वह ९४ वर्ष की उम्र में भी अपनी मुनि चर्या का पालन भली भांति कर रहे थे।            वर्धमान सागरजी महाराज बिना किसी की सहायता के ही इस उम्र मे अपने केशलौंच भी शीघ्रता से कर लेते थे। उनसे प्रश्न किया गया- "महाराज ! आपके जाप का क्

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असंख्य चींटियों द्वारा उपसर्ग - अमृत माँ जिनवाणी से - ५०

?     अमृत माँ जिनवाणी से - ५०     ?          "असंख्य चींटियों द्वारा उपसर्ग"                               एक बार पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज जंगल के मंदिर के भीतर एकांत स्थान में ध्यान करने बैठे वहाँ पुजारी दीपक जलाने आया दीपक में तेल डालते समय कुछ तेल भूमि पर बह गया। वर्षा की ऋतु थी। दीपक जलाने के बाद पुजारी अपने स्थान पर आ गया था।                  आचार्य महाराज ने बताया उस समय हम निंद्राविजय तप का पालन करते थे। इससे उस रात्रि को जाग्रत रहकर हमने ध्यान में काल व्य

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तपश्चरण का प्रभाव - अमृत माँ जिनवाणी से - ४९

?    अमृत माँ जिनवाणी से - ४९     ?               "तपश्चरण का प्रभाव"            आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज कटनी के चातुर्मास के पश्चात जबलपुर जाते समय जब बिलहरी ग्राम पहुँचे, तो वहाँ के लोग पूज्यश्री की महिमा से प्रभावित हुए। वहाँ के सभी कुँए खारे पानी के थे।           एक स्थान पर आचार्य महाराज बैठे थे। भक्त लोगो ने उसी जगह कुआँ खोदा। वहाँ बढ़िया और अगाध जल की उपलबब्धि हुई। आज भी इस गाँव के लोग इन साधुराज की तपस्या को याद करते हैं।           एक बार कटनी की जैन शिक्ष

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बालक का समाधान - अमृत माँ जिनवाणी से - ४८

?    अमृत माँ जिनवाणी से - ४८    ?              "बालक का समाधान"             आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज सन् १९५३ में बारसी में विराजमान थे।               उत्तर भारत का एक बालक अपने कुटुम्बियों के साथ गुरुदेव के दर्शन को आया। वह बच्चा लगभग चार वर्ष का था। दर्शन के पूर्व कभी उसने महाराज के साँपयुक्त चित्र देखा था।            इससे वह महाराज से बोला- "तुम्हारा साँप कहाँ है?"            महाराज बच्चे के आश्रय को समझ गए। वे मुस्कराते हुए बोले, "वह साँप अब यहाँ नहीं है

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दिव्य दृष्टि - अमृत माँ जिनवाणी से - ४७

?    अमृत माँ जिनवाणी से -  ४७    ?                       "दिव्यदृष्टि"                  महिसाल ग्राम के पाटील श्री मलगोंड़ा केसगोंडा आचार्य महाराज ने निकट परिचय में रहे हैं। वृद्ध पाटील महोदय ने बताया, "आचार्यश्री शान्तिसागर जी महाराज १९२२ के लगभग हमारे यहाँ पधारे थे।          उस समय उनका अपूर्व प्रभाव दिखाई पड़ता था। उनकी शांत व तपोमय मूर्ति प्रत्येक के मन को प्रभावित करती थी। उस समय की एक बात मुझे याद है।          एक दिन आचार्य ने अपने साथ में रहने वाले ब्रम्हचारी जिनगो

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दुष्ट का प्रसंग - अमृत माँ जिनवाणी से - ४६

?    अमृत माँ जिनवाणी से - ४६     ?                      "दुष्ट का प्रसंग"           कोगनोली चातुर्मास के समय आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज  कोगनोली की गुफा मे रहा करते थे। आहार के लिए वे सवेरे योग्य काल में जाते थे।                 मार्ग में एक विप्रराज का ग्रह पड़ता था। उनका दिगम्बर रूप देखते हुए एक दिन उसका दिमाग कुछ गरम हो गया। उसने आकर दुष्ट की भाषा में इसने अपने घर के सामने से जाने की आपत्ति की। उसके ह्रदय को पीड़ा देने मे क्या लाभ यह सोचकर इन्होंने आने-जाने का मार्ग बद

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