Jump to content
फॉलो करें Whatsapp चैनल : बैल आईकॉन भी दबाएँ ×
JainSamaj.World

Blogs

Featured Entries

4. दशरथ -

4. दशरथ - जैन दर्शन के अनुसार कारण और कार्य का अपूर्व सम्बन्ध है। हेतुना न बिना कार्यं भवतीति किमद्भुतम्। अर्थात् कारण के बिना कार्य नहीं होता है, इसमें क्या आश्चर्य है ? इस ही आधार पर हम यहाँ भी देखेंगे कि किसी भी घटना का घटित होता कार्य और कारण के सम्बन्ध पर ही आश्रित है, अतः इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। इससे हमारा दृष्टिकोण स्पष्ट होने से रामकथा के सभी पात्रों के प्रति न्यायपूर्ण व्यवहार संभव हो सकेगा तथा रामकथा को भी भलीर्भांति समझ सकेंगे। आगे हम पउमचरिउ के अनुसार रामकथा के सभी प्रमुख प

Sneh Jain

Sneh Jain

वैराग्य भाव - अमृत माँ जिनवाणी से - १०७

?     अमृत माँ जिनवाणी से - १०७     ?                    "वैराग्य भाव"                     कुछ विवेकी भक्तों ने पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज से प्रार्थना की थी- "महाराज अभी आहार लेना बंद मत कीजिए। चौमासा पूर्ण होने पर मुनि, आर्यिका आदि आकर आपका दर्शन करेंगे। चौमासा होने से वे कोई भी गुरुदर्शन हेतु नहीं आ सकेगें।"        महाराज ने कहा- "प्राणी अकेला जन्म धारण करता है, अकेला जाता है, 'ऐसी एकला जासी एकला, साथी कुणि न कुणाचा.(कोई किसी का साथी नहीं है।) ' क्यों मै दूसरों

Abhishek Jain

Abhishek Jain

रामकथा के पात्रों का चरित्र चित्रण

अब हम रामकथा को रामकथा के पात्रों के चरित्र चित्रण के माध्यम से समझने का प्रयास करेंगे। पात्रों के चरित्र-चित्रण से राम काव्य की कथावस्तु तो स्पष्ट होगी ही, साथ ही मानव मन के विभिन्न आयाम भी प्रकट होंगे। इस संसार में रंक से लेकर राजा तक कोई भी मनुष्य पूर्णरूप से सुखी एवं षान्त नहीं है। प्रत्येक मनुष्य के विकास मार्ग को उसकी किसी न किसी मुख्य मानवीय कमजोरी ने अवरुद्ध कर रखा है। अज्ञानवष व्यक्ति अपनी कमजोरियों का अन्वेषण नहीं कर पाने के कारण उचित समय पर उनका परिमार्जन नहीं कर पाता,, जिससे वह अपने

Sneh Jain

Sneh Jain

आत्मध्यान - अमृत माँ जिनवाणी से - १०६

?    अमृत माँ जिनवाणी से - १०६     ?                  "आत्मध्यान"                  'आत्मा का चिंतन करो', यह बात दो या तीन वषों से पुनः-पुनः दोहरा रहे थे। उन्होंने सन् १९५४ में फलटण में चातुर्मास के पूर्व सब समाज को बुलाकर कहा था- "तुम अपना चातुर्मास अपने यहाँ कराना चाहते हो, तो एक बात सबको अंगीकार करनी पड़ेगी।"         सबने उनकी बात शिरोधार्य करने का वचन दिया।         पश्चात् महाराज ने कहा- "सब स्त्री पुरुष यदि प्रतिदिन कम से कम पाँच मिनिट पर्यन्त आत्मा का चिंतवन करने की

Abhishek Jain

Abhishek Jain

पउमचरिउ का प्रथम विद्याधरकाण्ड थ्वससवू जीपे 0

पउमचरिउ का प्रथम विद्याधरकाण्ड जैन रामकथा का प्रथम विद्याधरकाण्ड आगे की सम्पूर्ण रामकथा का बीज है। इस विद्याधरकाण्ड का सही रूप से आकलन किया जाने पर ही अन्य रामकथाओं के सन्दर्भ में जैन रामकथा के वैषिष्ट्य को समझा जा सकता है। यह विद्याधरकाण्ड भारतदेष के षक्तिषाली विद्याधरो के कथन के माध्यम से भारतदेष की सभ्यता एवं संस्कृति का एक सुन्दर चित्रण है। इसमें भारतदेष में विभिन्न वंषों की उत्पत्ति एवं उन वंषों में रहे सम्बन्धों को बताया गया है। आगे की सम्पूर्ण रामकथा का सम्बन्ध भी इन्हीं वंषों से है। ये व

Sneh Jain

Sneh Jain

अपभ्रंश भाषा में रचित प्रथम महाकाव्य: पउमचरिउ (राम चरित्र)

अपभ्रंश के प्रबन्ध ग्रन्थों में सर्वप्रथम ‘पउमचरिउ’ का नाम आता हैं। पउमचरिउ रामकथा पर आधारित श्रेष्ठ महाकाव्य है। यह महाकाव्य 90 संधियों में पूर्ण होता है। पउमचरिउ की 83 संधियाँ स्वयं स्वयंभू द्वारा तथा शेष 7 संधियाँ स्वयंभू के पुत्र त्रिभुवन द्वारा लिखी गयी है। स्वयंभू कवि के पउमचरिउ का आधार आचार्य रविषेण का पद््मपुराण रहा है। उन्होंने लिखा है ‘रविसेणायरिय-पसाएं बुद्धिएॅ अवगाहिय कइराएं’ अर्थात् रविषेण के प्रसाद से कविराज स्वयंभू ने इसका अपनी बुद्धि से अवगाहन किया है। यहाँ स्वयंभू आचार्य रविषेण

Sneh Jain

Sneh Jain

अद्भुद दृश्य - अमृत माँ जिनवाणी से - १०५

?     अमृत माँ जिनवाणी से - १०५     ?                    "अद्भुत दृश्य"                यम समाधि के बारहवें दिन ता. २६ अगस्त को महाराज जल लेने को उठे। उनकी चर्या में तनिक भी शिथिलता नहीं थी।            मंदिर में भगवान का अभिषेक उन्होंने बड़े ध्यान से देखा। इससे समाधि की परम बेला में भी वे अभिषेक को देखकर निर्मलता प्राप्त करते थे। बाद में महाराज चर्या को निकले। हजारों की भीड़ उनकी चर्या देखने को पर्वत पर एकत्रित थी। अद्भुत दृश्य था।            नवधाभक्ति के बाद महाराज के बाद

Abhishek Jain

Abhishek Jain

अपभ्रंश भाषा के प्रथम काव्यकार:स्वयंभू

यंभू अविवाद्य रूप से अपभ्रंश के श्रेष्ठ कवि तथा प्रबन्धकाव्य के क्षेत्र में अपभ्रंश के आदि कवि हैं। इनकी महानता को स्वीकार करते हुए अपभ्रंश के दूसरे महाकवि पुष्पदन्त ने उनको व्यास, भास, कालिदास, भारवि, बाण, चतुर्मुख आदि की श्रेणी में विराजमान किया है। स्वयंभू ‘महाकवि’, ‘कविराज’, ‘कविराज चक्रवर्ती’ जैसी उपाधियों से सम्मानित थे। जिस प्रकार सूर- सूर तुलसी-शशी जैसी उक्ति हिन्दी साहित्य की दो महान विभूतियों का यशोगान करती है उसी प्रकार अपभ्रंश साहित्य में ’सयम्भू-भाणु, पुफ्फयन्त-णिसिकन्त तो कोई अतिशय

Sneh Jain

Sneh Jain

भारतीय संस्कृति एवं रामकाव्य

भारतीय संस्कृति एवं रामकाव्य भारतीय संस्कृति प्राचीनकाल से परिष्कृत होती हुई सतत विकास की और प्रवाहमान है। विगत समय से लेकर वर्तमान पर्यन्त यदि हम भारतीय संस्कृति का अनुशीलन करें तो हम देखते हैं कि पूर्वकाल में जहाँ तक इतिहास की दृष्टि जाती है वहाँ तक बराबर श्रमण व वैदिक परम्परा के स्रोत दृष्टिगोचर होते हैं। इससे जान पड़ता है कि इतिहासातीत काल से वैदिक व श्रमण परम्पराएँ क्षेत्र और काल की दृष्टि से साथ-साथ विकसित होती चली आयीं हैं तथा भारतीय संस्कृति का निर्माण श्रमण और वैदिक परम्परा के मेल से ही

Sneh Jain

Sneh Jain

११०५ दिन बाद अन्नाहार - अमृत माँ जिनवाणी से - १०४

?     अमृत माँ जिनवाणी से - १०४     ?            "११०५ दिन बाद अन्नाहार"                     १६ अगस्त १९५१ को धर्म पर आये संकट से रक्षा के उपरांत रक्षाबंधन के दिन इस युग के अकम्पन ऋषिराज शान्तिसागरजी महाराज ने तथा उनके अतिशयभद्र वीतरागी तपस्वी शिष्य मुनि नेमिसागर ने अन्नाहार लिया।                 आचार्य महाराज का अन्नाहार ११०५ दिनों के पश्चात् हुआ था। रोगी व्यक्ति को जब दो चार दिन को अन्न नहीं मिलता है, तो वह निरंतर अन्न को ही तरसता है। अन्न को तो प्राण कहता है। आचार्यश्री क

Abhishek Jain

Abhishek Jain

आधुनिक भारतीय भाषाओं की जननी: अपभ्रंश

आधुनिक भारतीय भाषाओं की जननी: अपभ्रंश भारतदेश के भाषात्मक विकास को तीन स्तरों पर देखा जा सकता है।     1. प्रथम स्तर: कथ्य प्राकृत, छान्द्स एवं संस्कृत (ईसा पूर्व 2000 से ईसा पूर्व 600 तक) वैदिक साहित्य से पूर्व प्राकृत  प्रादेशिक भाषाओं के रूप में बोलचाल की भाषा (कथ्य भाषा) के रूप से प्रचलित थी। प्राकृत के इन प्रादेशिक भाषाओं के विविध रूपों के आधार से वैदिक साहित्य की रचना हुई औरा वैदिक साहित्य की भाषा को ‘छान्दस’ कहा गया, जो उस समय की साहित्यिक भाषा बन गई। आगे चलकर पाणिनी ने अपने समय तक चली आई

Sneh Jain

Sneh Jain

गंभीर स्थिति - अमृत माँ जिनवाणी से - १०३

?     अमृत माँ जिनवाणी से - १०३     ?                    "गंभीर स्थिति"                                    सन् १९४७ में बम्बई सरकार द्वारा पारित निर्णय के फलस्वरूप धर्म पर एक बड़ा संकट आया था। कोर्ट में उस निर्णय के विरोध में याचिका चल रही थी।              २४ जुलाई १९५१ का मंगलमय दिवस आया जब बम्बई कानून के सम्बन्ध में न्यायालय में निर्णय होना था। ११ बजे चीफ जस्टिस व् जस्टिस आ गए। पौने दो बजे प्रधान न्यायाधीश ने अपने बकील दास बाबू से पूंछा"कहिए दास बाबू आपका क्या मामला है?"

Abhishek Jain

Abhishek Jain

भीष्म प्रतिज्ञा - अमृत माँ जिनवाणी से - १०२

☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,              जिस तरह वर्तमान में हमारे धर्म पर सल्लेखना पर रोक के रूप में बहुत बड़ा संकट आया है उसी तरह सन् १९४७ में भी बम्बई कानून के माध्यम से एक बहुत बड़ा संकट जैन धर्म पर आया था। जिस तरह वर्तमान के संकट की तीव्रता का बोध हमारे साधू परमेष्ठी करा रहे है उसी तरह तत्कालीन श्रावको को पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने संकट की भयावहता से अवगत कराया।           धर्मरक्षा पर्व रक्षाबंधन विष्णुकुमार मुनि द्वारा सात सौ मुनियों के उपसर्ग दूर करने के साथ प्रारम्भ हुआ था

Abhishek Jain

Abhishek Jain

वीर सागर जी को आचार्य पद का दान - अमृत माँ जिनवाणी से - १०१

?     अमृत माँ जिनवाणी से - १०१     ?      "वीरसागरजी को आचार्य पद का दान"                    ता. २६ शुक्रवार को आचार्य महाराज ने वीरसागर महाराज को आचार्य पद प्रदान किया। उसका प्रारूप आचार्यश्री के भावानुसार मैंने(लेखक ने) लिखा था। भट्टारक लक्ष्मीसेनजी, कोल्हापुर आदि के प्रमार्शनुसार उसमें यथोचित परिवर्तन हुआ।             अंत में पुनः आचार्य महाराज को बांचकर सुनाया, तब उन्होंने कुछ मार्मिक संशोधन कराए।              उनका एक वाक्य बड़ा विचारपूर्ण था- "हम स्वयं के संतोष से

Abhishek Jain

Abhishek Jain

जलग्रहण का रहस्य - अमृत माँ जिनवाणी से - १००

☀जय जिनेन्द्र बन्धुओं,            आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के जीवन चरित्र का यह प्रसंग सूक्ष्मता से अवलोकन करने पर ज्ञात होगा कि यह प्रसंग सल्लेखना प्राप्ति की पवित्र भावना के साथ धर्म-ध्यान करने वाले हर एक श्रावक के लिए योग्य मार्गदर्शन है। ?     अमृत माँ जिनवाणी से - १००     ?               "जलग्रहण का रहस्य"          आचार्य महाराज ने यम सल्लेखना लेते समय केवल जल लेने की छूट रखी थी। इस सम्बन्ध में मैंने कहा - "महराज ! यह जल की छूट रखने का आपका कार्य बहुत महत्व क

Abhishek Jain

Abhishek Jain

सप्तम प्रतिमा धारण - अमृत माँ जिनवाणी से - ९९

?     अमृत माँ जिनवाणी से - ९९     ?                "सप्तम प्रतिमा धारणा"                        कल के प्रसंग में हमने देखा कि बाबूलाल मार्ले कोल्हापुर वालों ने पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज का कमंडल पकड़ने हेतु भविष्य में क्षुल्लक दीक्षा लेने की भावना व्यक्त की।                  बाबूलाल मार्ले ने महाराज का कमण्डलु उठा लिया, तब महाराज बोले- "देखो ! क्षण भर का भरोसा नहीं है। कल क्या हो जायेगा यह कौन जानता है। तुम आगे दीक्षा लोगे यह ठीक है किन्तु बताओ ! अभी क्या लेते हो।

Abhishek Jain

Abhishek Jain

विनोद में संयम की प्रेरणा - अमृत माँ जिनवाणी से - ९८

?     अमृत माँ जिनवाणी से - ९८     ?          "विनोद में संयम की प्रेरणा"                कोल्हापुर के एक भक्त की कल्याणदायिनी मधुर वार्ता है। उनका नाम बाबूलाल मार्ले है। संपन्न होते हुए संयम पालना और संयमीयों की सेवा-भक्ति करना उनका व्रत है। वे दो प्रतिमाधारी थे।                     वारसी से महाराज कुंथलगिरि को आते थे। महाराज का कमण्डलु उठाने लगे, तो महाराज ने कह दिया- "तुम हमारे कमण्डलु को हाथ मत लगाना। उसे मत उठाओ।" ये शब्द सुनते ही मार्ले चकित हुए।                 मह

Abhishek Jain

Abhishek Jain

जनगौड़ा पाटील को देशना - अमृत माँ जिनवाणी से - ९७

?     अमृत माँ जिनवाणी से - ९७     ?           "जनगौड़ा पाटील को देशना"                     कुंथलगिरि में पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के गृहस्थ जीवन के छोटे भाई कुमगोंडा पाटील के चिरंजीव श्री जनदौड़ा पाटील जयसिंगपुर से सपरिवार आए थे। आचार्य महाराज के चरणों को उन्होंने प्रणाम किया।                   बाल्यकाल में जनगौड़ा आचार्य महराज की गोद में खूब खेल चुके थे, जब महाराज शान्तिसागरजी सातगौड़ा पाटील थे। उस समय का स्नेह दूसरे प्रकार का था, अब का स्नेह वीतरागता की ओर ले जाने

Abhishek Jain

Abhishek Jain

कथनी और करनी - अमृत माँ जिनवाणी से - ९६

?     अमृत माँ जिनवाणी से - ९६     ?                 "कथनी और करनी"                     पंडितजी ने कहा- "महाराज ! आपके समीप बैठकर ऐसा लगता है कि हम जीवित समयसार के पास बैठे हों। आप आत्मा और शरीर को ना केवल भिन्न मानते हैं तथा कहते हैं किन्तु प्रवृत्ति भी उसी प्रकार कर रहे हैं। शरीर आत्मा से भिन्न है। वह अपना मूल स्वभाव नहीं है, परभाव रूप है, फिर खिलाने-पिलाने आदि का व्यर्थ क्यों प्रयत्न किया जाय? यथार्थ में आपकी आत्म प्रवृत्ति अलौकिक है।"            महाराज बोले- "आत्मा को भिन

Abhishek Jain

Abhishek Jain

जीवित समयसार - अमृत माँ जिनवाणी से - ९५

?     अमृत माँ जिनवाणी से - ९५     ?                 "जीवित समयसार"                     एक दिन पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज कहने लगे- "आत्मचिंतन द्वारा सम्यकदर्शन होता है। सम्यक्त्व होने पर दर्शन मोह के आभाव होते हुए भी चरित्र मोहनीय कर बैठा रहता है। उसका क्षय करने के लिए संयम को धारण करना आवश्यक है। संयम से चरित्र मोहनीय नष्ट होता होगा। इस प्रकार सम्पूर्ण मोह के क्षय होने से, अरिहंत स्वरुप की प्राप्ति होती है।"                  मैंने(लेखक) ने कहा "महाराज ! आपके समीप

Abhishek Jain

Abhishek Jain

विचारपूर्ण प्रवृत्ति - अमृत माँ जिनवाणी से - ९४

?     अमृत माँ जिनवाणी से - ९४     ?                 "विचारपूर्ण प्रवृत्ति"                                   बात उस समय की है जब आचार्य महाराज का कवलाना में दूसरी बार चातुर्मास हो रहा था। अन्य परित्याग के कारण उनका शरीर बहुत आशक्त हो गया था। उस समय उनकी देहस्थिति चिन्ताप्रद होती जा रही थी। एक दिन महाराज आहार के लिए नहीं निकल रहे थे। मै उनके चरणों में पहुँचा।                      महाराज बोले- "आज हमारा इरादा आहार लेने का नहीं हो रहा है।"                      मैंने प्रार्

Abhishek Jain

Abhishek Jain

गुणग्राहीता का सुंदर उदाहरण - अमृत माँ जिनवाणी से - ९३

?     अमृत माँ जिनवाणी से - ९३     ?         "गुणग्राहिता का सुन्दर उदाहरण"                     एक बार एक छोटी बालिका गुरुदेव के दर्शन हेतु आई थी। उससे पूंछा गया- "बेटी ! तू किसकी ?"                   वह चुप रही। तब पूछा, 'तू काय आई ची आहेस (तू क्या माता कि है)?' उसने कहा- "नहीं।" फिर कहा- "बापाची (क्या पिता की है) ?" उसने फिर नहीं कहा।                 फिर पूंछा- "किसकी है ?" उसने कहा, "मी माझी (मै अपनी हूँ।)"                 यह सुनते ही आचार्यश्री बहुत आनन्दित हो

Abhishek Jain

Abhishek Jain

सल्लेखना का निश्चय - अमृत माँ जिनवाणी से - ९२

?    अमृत माँ जिनवाणी से - ९२     ?             "सल्लेखना का निश्चय"               पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने सल्लेखना करने का निश्चय गजपंथा में ही सन् १९५१ में किया था; किन्तु यम सल्लेखना को कार्यरूपता कुंथलगिरि में प्राप्त हुई थी। महाराज ने सन् १९५२ में बरामति चातुर्मास के समय पर्युषण में मुझसे कहा था कि- "हमने गजपंथा में द्वादशवर्ष वाली सल्लेखना का उत्कृष्ट नियम ले लिया है। अभी तक हमने यह बात जाहिर नहीं की थी। तुमसे कह रहे हैं। इसे तुम दूसरों को भी कहना चाहो, तो क

Abhishek Jain

Abhishek Jain

×
×
  • Create New...