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असंख्य चींटियों द्वारा उपसर्ग - अमृत माँ जिनवाणी से - ५०


Abhishek Jain

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?     अमृत माँ जिनवाणी से - ५०     ?


         "असंख्य चींटियों द्वारा उपसर्ग"

              
               एक बार पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज जंगल के मंदिर के भीतर एकांत स्थान में ध्यान करने बैठे वहाँ पुजारी दीपक जलाने आया दीपक में तेल डालते समय कुछ तेल भूमि पर बह गया। वर्षा की ऋतु थी। दीपक जलाने के बाद पुजारी अपने स्थान पर आ गया था।

                 आचार्य महाराज ने बताया उस समय हम निंद्राविजय तप का पालन करते थे। इससे उस रात्रि को जाग्रत रहकर हमने ध्यान में काल व्यतीत करने का नियम कर लिया था। पुजारी के जाने के कुछ काल पश्चात चींटियों ने आना प्रारम्भ कर दिया। धीरे-२ असंख्य चींटियों का समुदाय इकठ्ठा हो गया और हमारे शरीर पर आकर फिरने लगी। कुछ काल के अनंतर उन्होंने हमारे शरीर के अधोभाग नितम्ब आदि को काटना प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने जब शरीर को खाना प्रारम्भ किया, तो अधोभाग से खून बहने लगा। उस समय हम सिद्ध भगवान का ध्यान करते थे। रात्रि भर यही अवस्था रही। चीटियाँ नोच-नोच कर खाती जाती थी।"

                    कभी एकाध चींटी शरीर से चिपक जाती है, तब उसके काटने से जो पीढ़ा होती है,उससे सारी देह व्यथित हो जाती है। जब शरीर मे असंख्य चीटियाँ चिपकी हों और देह के अत्यंत कोमल अंग गुप्तांग को सारी रात लगातार खाती रहें और नरदेह स्थित आत्माराम बिना प्रतिकार किये एक दो मिनिट नहीं, घंटे दो घंटे नहीं, लगातार सारी रात इस दृश्य को ऐसे अलिप्त होकर देख रहे थे, मानो सांख्य दर्शन का पुष्कर पलाशवत निर्लिप्त पुरुष प्रकृति की लीला देख रहा हो। 

                 यदि कोई इस भीषण स्थिति का मनोवैज्ञानिक दृष्टि से गहरे रूप मे विचार करे, तो ज्ञात होगा कि इस नरक तुल्य व्यथा को स्वाधीन वृत्ति वाले योगीराज शान्तिसागरजी निर्ग्रन्थ एकांत स्थल में सहन करते रहे, तो उनकी आत्मा कितनी परिष्कृत, सुसंस्कृत वैराग्य तथा भेद विज्ञान के भाव से परिपूर्ण होगी।

                एक समय सर्पराज शरीर से लिपटा था। वह मृत्युराज का बंधु था, यही भय था किन्तु जिस असहनीय और अवर्णनीय वेदना को महाराज ने समता पूर्वक सहन किया था, उसे कहा नहीं जा सकता।

                   जब यह उपसर्ग हो रहा था तब रात्रि के उत्तरार्ध में उस मंदिर के पुजारी को स्वप्न आया कि महाराज को बड़ा भारी कष्ट हो रहा है। वह एकदम घबरा कर उठा, किन्तु उस भयंकर स्थान में रात्रि को जाने की उसकी हिम्मत नहीं होती थी। कारण वहाँ शेर का विशेष भय था। उसने अपने साथी दूसरे जैन बंधु को स्वप्न की बात सुनाकर वहाँ चलने को कहा, किन्तु भय व प्रमादवश उसने उस बात पर ध्यान नहीं दिया। 

                 रात्रिभर निर्ग्रन्थराज की देह पर निर्मम हो छोटी-सी चींटियों ने जो धोर उपद्रव किया था। उसको प्रकाश में लाने हेतु ही मानो सूर्य ने उदित हो प्रकाश पहुंचाया। 

            लोग वहाँ आकर देखते हैं, तो उनके नेत्रो से अश्रुधारा बहने लगी, कारण महाराज के शरीर के गुह्य भाग से रक्तधारा निकल रही थी और शरीर सूजा हुआ था तथा फिर भी चीटियाँ शरीर को खाने के उद्योग मे पराक्रम दिखा रहीं थी।

            लोगों ने दूसरी जगह शक्कर डालकर धीरे-२ उनको अलग किया, पश्चात गुरुदेव की योग्य वैययावृत्ति की। उस उपसर्ग का जिसने प्रत्यक्ष हाल देखा, उनकी आँखो में अश्रु आये बिना न रहे। सर्वत्र इस उपसर्ग की चर्चा पहुँची।


?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  ?

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