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उद्धार का भाव जीवन को पवित्र बनाना - अमृत माँ जिनवाणी से - ६६


Abhishek Jain

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?     अमृत माँ जिनवाणी से - ६६     ?


 "उद्धार का भाव जीवन को पवित्र बनाना"


                 आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने अपने उपदेश द्वारा अनेक हरिजनों का सच्चा उद्धार किया है। पाप प्रवृतियों का त्याग ही आत्मा को ऊँचा उठाता है। महाराज के प्रति भक्ति करने वाले बहुत से चरित्रवान हरिजन मिलेंगे।

                    उन्होंने अपनी करुणा वृत्ति द्वारा सभी दीन दुखी जीवो को सत्पथ पर लगाया है। आठ वर्ष पूर्व हमे शेड़वाल में आचार्य महाराज का व्रत धारक शुद्र शिष्य मिला था। उसने मद्य, मांस आदि का त्याग कर अष्टमूल गुण रूप व्रत लिए थे। वह रात्रि में भोजन नही करता था, यद्यपि आजकल बड़े-बड़े धार्मिक परिवार के लोग लक्ष्मी के मद में आकर जैन कुल परम्परागत प्रसिद्ध क्रिया को भूल गए हैं। उस हरिजन भाई का जीवन बड़ा सुंदर था।

                 वह कहता था कि मैं अष्टमी चतुर्दशी को व्रत करता हूँ। आज के हरिजन भक्त जैन ऐसे मिलेगें जिन्हें दूसरों को व्रत पालन करते देख कष्ट होता है।

              हमे अनेक धनी मानी परिवारों के व्यक्तियों का निकट जीवन देखने का मौका मिला है, जो समाज सेवा व लोक अहंकार का मुकुट मस्तक पर बांधे हुए आनंदित होते हैं किन्तु प्राथमिक स्थिति वाले जैन के लिए कुल परम्परागत क्रियाएँ उनमे विलुप्त होती जा रहीं हैं।

                   ऐसे पतित आचरण के लोग उस हरिजन भाई को अपना गुरु बनावें तो कल्याण होगा।

               सन १९६९ में आचार्यश्री १०८ देशभूषण महाराज की जन्म भूमि कोथुली में एक सुशिक्षित हरिजन मिला, जो उनके तथा आचार्य पायसागरजी के उपदेश से प्रगाढ़ अहिंसाप्रेमी बना।

                  वह क्षय रोग की अंतिम अवस्था में भी उसने मांस मदिरा युक्त इंजेक्शन नहीं लिया। उसने हमे कहा था, "जगदम्बा ! अहिंसा और णमोकार मंत्र के कारण मेरा क्षय रोग दूर हो गया"।


?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  ?

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