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अद्भुत युग - अमृत माँ जिनवाणी से - ५४


Abhishek Jain

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☀इस प्रसंग को आप जरूर पढ़े। इस प्रसंग को पढ़कर आपको अनुभव होगा कि कैसी विषम स्थितियों मे आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने दृढ़ता के साथ अपने अत्म कल्याण के मार्ग पर प्रवृत्ति की, जिसका ही परिणाम था कि मुगल साम्राज्य आदि के समय क्षतिग्रस्त हुई हमारी जैन संस्कृति का समृद्ध रूप अब पुनः निर्ग्रन्थ गुरुओ के दर्शन के रूप मे हमारे सामने है।


?     अमृत माँ जिनवाणी से- ५४     ?


                    "अद्भुत युग"


          मुनिश्री वर्धमान सागरजी जो आचार्यश्री शान्तिसागर जी महाराज के गृहस्त जीवन में बड़े भाई थे। उन्होंने बताया जब आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज की क्षुल्लक दीक्षा हुई थी, वह समय अद्भुत था। 

           क्षुल्लक दीक्षा के उपरांत महाराज को देने योग्य कमंडल भी न था, अतः पास के लौटे में सुतली बांधकर उससे कमण्डलु का कार्य लिया गया था।

         देवप्पा स्वामी(आचार्य देवेन्द्रकीर्ति महाराज ) ने अपनी पिच्छी में से कुछ पंख निकालकर पिच्छी बनाई थी और महाराज को दी थी।

             उस समय क्या स्थिति थी विचारक पाठक, यह सोच सकता है।

           महाराज कापसी ग्राम में ठहरे। कुमगोंडा ने कहा- "मैं कोल्हापुर जाकर कमण्डलु लाता हूँ। आप भोज जाओ।" भुपालप्पा जिरगे ने एक कमण्डलु भेंट किया। कुमगोंडा ने कपसी ग्राम में जाकर महाराज को कमण्डलु दे दिया। 

      "दीक्षा के उपरांत महाराज का प्रथम चातुर्मास क्षुल्लक अवस्था में कोगनोली में हुआ।"

?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  ?

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