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हरिजनों पर प्रेम दृष्टि - अमृत माँ जिनवाणी से - ६५


Abhishek Jain

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?     अमृत माँ जिनवाणी से - ६५     ?


               "हरिजनों पर प्रेम दृष्टि"


               एक बार आचार्यश्री शान्तिसागर जी महाराज से पूंछा- "महाराज हरिजनों के उद्धार के विषय में आपका क्या विचार है?

                  महाराज कहने लगे- "हमें हरिजनों को देखकर बहुत दया आती है। हमारा उन बेचारों पर रंचमात्र भी द्वेष नहीं है।
  
                     गरीबी के कारण वे बेचारे अपार कष्ट भोगते हैं। हम उनका तिरस्कार नहीं करते हैं। हमारा तो कहना तो यह है कि उन दीनों का आर्थिक कष्ट दूर करो, भूखे को रोटी दो, हेय( छोडने योग्य ) व उपादेय (लाभकारी ) का बोध करवाओ।

                    तुमने उनके साथ भोजन पान कर लिया, तो इससे उन विचारों का कष्ट कैसे दूर हो गया?

             ये सब हमारे भाई हैं। सब पर दया करना जैन धर्म का मूल सिद्धांत है। अन्य मतावलंबी सभी साधु भी हमारे भाई हैं। हम पूर्व में कई भव नीच पर्याय को धारण कर चके हैं। हरिजनों के प्रति हमारा द्वेष भाव नहीं है।"

                   उन्होंने कहा- "तुम कई मंजिलो वाले भवनों में रहो और वे झोपड़ी में पड़े रहें। वे आवश्यक अन्य वस्त्र भी ना पा सकें। इसकी फिकर ना करके तुम उनके साथ खाने को कहते हो। साथ में खाने में आत्मा का उद्धार नहीं होता है। जीवन का उद्धार तो होता है पाप का त्याग करने से।

                    उनको शराब, मांस, शिकार का त्याग कराओ। निरपराधी जीव की हिंसा का त्याग कराओ। उनकी गरीबी का कष्ट दूर करो। प्रत्येक गरीब को उचित भूमि दो, इसके साथ शर्त हो कि वह मद्य, मांस, शिकार का त्याग करें तथा निरपराध जीवों का वध ना करें। उनका जीवन ऊँचा उठाओ।

?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  ?

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