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दिव्यदृष्टि - अमृत माँ जिनवाणी से - ४५

?    अमृत माँ जिनवाणी से - ४५    ?                     "दिव्यदृष्टि"           आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज की चित्तवृत्ति में अनेक बातें स्वयमेव प्रतिबिम्बित हुआ करती थी।          एक समय की बात है कि पूज्यश्री का वर्षायोग जयपुर में व्यतीत हो रहा था। कुचड़ी (दक्षिण) के मंदिर के लिए ब्रम्हचारी पंचो की ओर से मूर्ति लेने जयपुर आए।         महाराज के दर्शन कर कहा- "स्वामिन् ! पंचो ने कहा है कि पूज्य गुरुदेव की इच्छानुसार मूर्ति लेना। उनका कथन हमे शिरोधार्य होगा।"      

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तृषा परिषह जय - अमृत माँ जिनवाणी से - ४४

?    अमृत माँ जिनवाणी से - ४४    ?                "तृषा-परीषय जय"             एक दिन की घटना है। ग्रीष्मकाल था। महाराज आहार को निकले। दातार ने भक्तिपूर्वक भोजन कराया, किन्तु वह जल देना भूल गया। दूसरे दिन गुरुवर पूर्ववत मौनपूर्वक आहार को निकले। उस दिन दातार ने महाराज को भोजन कराया, किन्तु अंतराय के विशेष उदय वश वह भी जल देने की आवश्यक बात को भूल गया। कुछ क्षण जल की प्रतीक्षा के पश्चात महाराज चुप बैठ गए। मुख शुद्धि मात्र की। जल नही पिया।           चुपचाप वापिस आकर सामायिक मे न

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शरीर निष्पृह साधुराज - अमृत माँ जिनवाणी से - ४३

?     अमृत माँ जिनवाणी से - ४३     ?             "शरीर निस्पृह साधुराज"           आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ज्ञान-ज्योति के धनी थे। वे शरीर को पर वस्तु मानते थे। उसके प्रति उनकी तनिक भी आशक्ति नही थी।          एक दिन पूज्य गुरुदेव से प्रश्न पूंछा गया- "महाराज ! आपके स्वर्गारोहण के पश्चात आपके शरीर का क्या करें?"      उत्तर- "मेरी बात मानोगे क्या?"      प्रश्नकर्ता- "हां महाराज ! आपकी बात क्यों नही मानेंगे?"      महाराज- "मेरी बात मानते हो, तो शरीर को नदी, नाला,

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बंध तथा मुक्ति - अमृत माँ जिनवाणी से - ४२

?    अमृत माँ जिनवाणी से - ४२    ?                   "बंध तथा मुक्ति"             आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज किसी उदाहरण को समझाने के लिए बड़े सुंदर दृष्टान्त देते थे। एक समय वे कहने लगे- "यह जीव अपने हाथ से संकटमय संसार का निर्माण करता है। यदि यह समझदारी से काम लें तो संसार को शीघ्र समाप्त स्वयं कर सकता है।"          उन्होंने कहा- "एक बार चार मित्र देशाटन को निकले। रात्रि का समय जंगल मे व्यतीत करना पड़ा। प्रत्येक व्यक्ति को तीन-तीन घंटे पहरे देनो को बाँट दिए गए। प्रारम्भ

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सुलझी हुई मनोवृत्ति - अमृत माँ जिनवाणी से - ४१

?    अमृत माँ जिनवाणी से - ४१    ?              "सुलझी हुई मनोवृत्ति"        एक समय एक महिला ने भूल से आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज को आहार में वह वस्तु दे दी, जिसका उन्होंने त्याग कर दिया था। उस पदार्थ का स्वाद आते ही वे अंतराय मानकर आहार लेना बंद कर चुपचाप बैठ गए।           उसके पश्चात उन्होंने पाँच दिन का उपवास किया और कठोर प्राश्चित भी लिया।यह देखकर वह महिला महाराज के पास आकर रोने लगी कि मेरी भूल के कारण आपको इतना कष्ट उठाना पड़ा।         महाराज ने उस वृद्धा को बड़े

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जीर्णोद्धार की प्रसंशा - अमृत माँ जिनवाणी से - ४०

?    अमृत माँ जिनवाणी से -  ४०    ?              "जीर्णोद्धार की प्रशंसा"                 एक धार्मिक व्यक्ति ने पाँच मंदिरो का जीर्णोद्धार कराया था।                      उसके बारे में आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज कहने लगे-             "जिन मंदिर का काम करके इसने अपने भव के लिए अपना सुंदर भवन अभी से बना लिया है।" ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  ?

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जन्म जन्मान्तर का अभ्यास - अमृत माँ जिनवाणी से - ३९

?    अमृत माँ जिनवाणी से - ३९    ?             "जन्मान्तर का अभ्यास"                 आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने संधपति गेंदंमल जी के समक्ष दिवाकरजी कहा था कि हमे लगता है, "इस भव के पूर्व में भी हमने जिन मुद्रा धारण की होगी।"            उन्होंने पूछा- "आपके इस कथन का क्या आधार है?          उत्तर में उन्होंने कहा - "हमारे पास दीक्षा लेने पर पहले मूलाचार ग्रंथ नहीं था, किन्तु फिर भी अपने अनुभव से जिस प्रकार प्रवृति करते थे, उसका समर्थन हमे शास्त्र मे मिलता था- ऐसा ह

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कोरा उपदेश धोबी तुल्य है - अमृत माँ जिनवाणी से - ३८

?    अमृत माँ जिनवाणी से - ३८    ?         "कोरा उपदेश धोबी तुल्य है"               अपने स्वरूप को बिना जाने जो जगत को चिल्लाकर उपदेश दिया जाता है, उसके विषय मे आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने बड़े अनुभव की बात कही थी, "जब तुम्हारे पास कुछ नही है, तब जग को तुम क्या दोगे?           भव-२ में तुमने धोबी का काम किया। दूसरों के कपड़े धोते रहे और अपने को निर्मल बनाने की और तनिक भी विचार नहीं किया।                अरे भाई ! पहले अपनी आत्मा को उपदेश दो, नाना प्रकार की मिथ्या तरं

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जीवनरक्षा व एकीभाव स्त्रोत का प्रभाव - अमृत माँ जिनवाणी से - ३७

?    अमृत माँ जिनवाणी से - ३७    ?   "जीवनरक्षा व एकीभाव स्त्रोत का प्रभाव"                 ब्रम्हचारी जिनदास समडोली वालों ने बताया कि आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज की अपार समर्थ को मैंने अपने जीवन में अनुभव किया है। उन्होंने मेरे प्राण बचाये, मुझे जीवनदान दिया, अन्यथा मैं आत्महत्या के दुष्परिणाम स्वरूप ना जाने किस योनी मे जाकर कष्ट भोगता।           बात इस प्रकार है कि मेरे पापोदय से मेरे मस्तक के मध्य भाग में कुष्ट का चिन्ह दिखाई पड़ने लगा। धीरे-२ उसने मेरे मस्तक को घेरना शु

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अन्य साधुओं तथा जनता पर अपूर्व प्रभाव - अमृत माँ जिनवाणी से - ३६

?     अमृत माँ जिनवाणी से - ३६     ?   "अन्य साधुओ व जनता पर अपूर्व प्रभाव"               अन्य सम्प्रदाय के बड़े-२ साधू और मठाधीश आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के चरित्र और तपस्या के वैभव के आगे सदा झुकते रहे हैं।              एक बार जब महाराज हुबली पधारे, उस समय लिंगायत सम्प्रदाय के श्रेष्ठ आचार्य सिद्धारूढ़ स्वामी ने इनके दर्शन किए और इनके भक्त बन गए। उन्होंने अपने शिष्यो से कहा था कि जीवन में ऐसे महापुरुष को अपना गुरु बनाना चाहिए।            एक समय कोल्हापुर के समीपवर

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जैनवाणी में सम्यक्त्व धारा - अमृत माँ जिनवाणी से - ३५

?     अमृत माँ जिनवाणी - ३५     ?        "जैनवाड़ी में सम्यक्त्व धारा"         आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज का क्षुल्लक अवस्था मे तृतीय चातुर्मास कोगनोली के उपरांत उन्होंने कर्नाटक की और विहार किया।           जैनवाड़ी में आकर उन्होंने वर्षायोग का निश्चय किया। इस जैनवाड़ी को जैनियो की बस्ती ही समझना चाहिए। वहाँ प्रायः सभी जैनी ही थे।        किन्तु वे प्रायः अज्ञान मे डूबे हुए थे। सभी कुदेवो की पूजा करते थे।       महाराज की पुण्य देशना से सभी श्रावको ने मिथ्यात्व का त्

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सतगौड़ा के पिता - अमृत माँ जिनवाणी से - ३४

?    अमृत माँ जिनवाणी का - ३४     ?                "सतगौड़ा के पिता"       आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने गृहस्थ जीवन मे जो उनके पिता थे उनके बारे में बताया था।कि उनके पिता प्रभावशाली, बलवान, रूपवान, प्रतिभाशाली, ऊंचे पूरे थे। वे शिवाजी महाराज सरीखे दिखते थे।        उन्होंने १६ वर्ष पर्यन्त दिन मे एक बार ही भोजन पानी लेने के नियम का निर्वाह किया था, १६ वर्ष पर्यन्त ब्रम्हचर्य व्रत रखा था। उन जैसा धर्माराधना पूर्वक सावधानी सहित समाधिमरण मुनियो के लिए भी कठिन है।      ए

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गुफा में ध्यान और सर्प उपद्रव में स्थिरता - अमृत माँ जिनवाणी से - ३३

?     अमृत माँ जिनवाणी से - ३३     ?   "गुफा मे ध्यान व सर्प उपद्रव में स्थिरता"               आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के पास दूर-दूर के प्रमुख धर्मात्मा श्रावक धर्म लाभ के लिए आते थे। धर्मिको के आगमन से किस धर्मात्मा को परितोष ना होगा, किन्तु अपनी कीर्ति के विस्तार से महाराज की पवित्र आत्मा को तनिक भी हर्ष नही होता था।वे बाल्य जीवन से ही ध्यान और अध्यन के अनुरागी थे।         अब प्रसिद्धिवश बहुत लोगो के आते रहने से ध्यान करने मे बाधा सहज ही आ जाती थी।इससे महाराज ने पहा

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आत्म प्रसंशा के प्रति उनकी धारणा - अमृत माँ जिनवाणी से - ३२

?     अमृत माँ जिनवाणी से - ३२     ?      "आत्म प्रशंसा के प्रति उनकी धारणा"                शरीर के प्रति अनात्मीय भाव होने से महाराज कहने लगे- "यह मकान दूसरों का है। जब मकान गिरने लगेगा तो दूसरे मकान मे रहेंगे।"       जो लोग महाराज की स्तुति करते हैं, "प्रशंसा करते हैं। वे उनके इन वक्यों को बाँचें- "मिट्टी की क्या प्रशंसा करते हो ? हमारी कीमत क्या है ?" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?

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क्या जमाना खराब है? - अमृत माँ जिनवाणी से - ३१

?     अमृत माँ जिनवाणी से - ३१     ?             "क्या जमाना खराब है?"           एक दिन आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के सामने चर्चा चली कि आज का जमाना खराब है, शिथिलाचार का युग है।        पुराना रंग ढंग बदल गया, अतः महाराज को भी अपना उपदेश नय ढंग से देना चाहिए।          महाराज बोले- "कौन कहता है जमाना खराब है। तुम्हारी बुद्धि खराब है, जो तुम जमाने को खराब कहते हो। जमाना तो बराबर है|           सूर्य पूर्व से उदित होता था, पश्चिम मे अस्त होता था, वही बात आज भी है।

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सर्पराज का मुख के समक्ष खड़ा रहना - अमृत माँ जिनवाणी से - ३०

?    अमृत माँ जिनवाणी से - ३०    ?   "सर्पराज का मुख के समक्ष खड़ा रहना"               एक दिन शान्तिसागरजी महाराज जंगल में स्थित एक गुफा में ध्यान कर रहे थे कि इतने में सात-आठ हाथ लंबा खूब मोटा लट्ठ सरीखा सर्प आया। उसके शरीर पर बाल थे। वह आया और उनके मुँह के सामने फन फैलाकर खड़ा हो गया।            उसके नेत्र ताम्र रंग के थे। वह महाराज पर दृष्टि डालता था और अपनी जीभ निकालकर लपलप करता था।उसके मुख से अग्नि के कण निकलते थे।              वह बड़ी देर तक हमारे नेत्रो के सामने खड़ा

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अद्भुत आत्मबल - अमृत माँ जिनवाणी से - २९

?     अमृत माँ जिनवाणी से - २९      ?               "अद्भुत आत्मबल"            कवलाना में चातुर्मास की घटना है। महाराज ने अन्न छोड़ रखा था। फलो का रस आदि हरी वस्तुओ को छोड़े लगभग १८ वर्ष हो गए थे। घी,नमक,शक्कर,छाछ आदि पदार्थो को त्यागे हुए भी बहुत समय हो गया था।        उस चातुर्मास में धारणा-पारणा का क्रम चल रहा था। गले का रोग अलग त्रास दायक हो रहा था।        एक उपवास के बाद दूसरे पारणे के दिन अंतराय आ गया। तीसरा दिन उपवास का था। चौथे दिन फिर अंतराय आ गया, पाँचवा दिन फिर उ

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पंच परमेष्ठी स्मरण - अमृत माँ जिनवाणी से - २८

?      अमृत माँ जिनवाणी से -२८      ?              "पंच परमेष्ठी स्मरण"                 आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज से प्रश्न किया कि "उपवासों में आपको अनुकूलता होती है या नहीं?"          महाराज ने कहा "हम उतने उपवास करते हैं, जितने में मन की शांति बनी रहे, जिसमें मन की शांति भंग हो, वह काम नहीं करना चाहिए।"         पुनः प्रश्न "महाराज ! एक ने पहले उपवास का लंबा नियम ले लिया। उस समय उसे ज्ञान ना था, कि यह उपवास मेरे लिए दुखद हो जायेगा। अब वह कष्टपूर्ण स्थिति में क्या

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क्लांत पुरुष को लादकर राजगृही की वंदना - अमृत माँ जिनवाणी से - २७

?    अमृत माँ जिनवाणी से  २७     ? 'क्लांत पुरुष को लादकर राजगिरी की वंदना'          शिखरजी की वंदना जैसी घटना राजगिरी के पञ्च पहाड़ियों की यात्रा में हुई।        वहाँ की वंदना बड़ी कठिन लगती है। कारण वहाँ का मार्ग पत्थरो के चुभने से पीढ़ाप्रद होता है।       जैसे यात्री शिखरजी आदि की अनेक वंदना करते हुए भी नहीं थकता है, वैसी स्थिति राजगिर में नहीं होती है। यहाँ पांचों पर्वतों की वंदना एक दिन  में करने वाला अपने को धन्यवाद देता है।         महाराज ने देखा कि एक पुरुष अत

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?वृद्धा को पीठ पर लाद शिखरजी की वंदना - अमृत माँ जिनवाणी से - २६

?    अमृत माँ जिनवाणी से -२६    ?    "वृद्धा को पीठ पर लाद शिखरजी वंदना"        गृहस्थ अवस्था में आचार्यश्री शान्तिसागर जी महाराज जब शिखरजी गए उस समय का प्रसंग है।        आचार्यश्री(गृहस्थ जीवन में) पर्वत पर चढ़ रहे थे। उनकी करुणा दृष्टि एक वृद्ध माता पर पडी, जो प्रयत्न करने पर भी आगे बढ़ने में असमर्थ हो गयी थी। थोडा चलती थी, किन्तु फिर ठहर जाती थी। पैसा इतना ना था कि पहले से ही डोली का प्रबंध करती।       उस माता को देखकर इन महामना के ह्रदय में वात्सल्य भाव उत्पन्न हुआ।

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शेर - अमृत माँ जिनवाणी से - २५

?     अमृत माँ जिनवाणी से - २५     ?                        "शेर"        "कोन्नूर की गुफा में एक बार आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ध्यान कर रहे थे, तब शेर आ गया था।"         मैंने पूंछा, "महाराज शेर के आने से भय का संचार तो हुआ होगा?"      महाराज ने कहा, "नहीं कुछ देर बाद शेर वहाँ से चला गया ।"    मैंने पूंछा, "महाराज निर्ग्रन्थ दीक्षा लेने के बाद कभी शेर आपके पास आया था?"     महाराज ने कहा, "हम मुक्तागिरी के पर्वत पर रहते थे, वहाँ शेर आया करता था। श्रवणबेलगो

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त्याग भाव - अमृत माँ जिनवाणी से - २४

?     अमृत माँ जिनवाणी से - २४     ?                    "त्याग भाव"        एक दिन लेखक ने आचार्य शान्तिसागरजी महाराज से पूंछा, "महाराज आपके वैराग्य परिणाम कब से थे?"         महाराज, "छोटी अवस्था से ही हमारे त्याग के भाव थे। १७ या १८ वर्ष की अवस्था में ही हमारे निर्ग्रन्थ दीक्षा लेने के परिणाम थे। जो पहले बड़े-बड़े मुनि हुए है, वे सब छोटी ही अवस्था में निर्ग्रन्थ बने थे।"        मैंने पूछा, "फिर कौन सी बात थी, जो आप उस समय मुनि न बन सके?"        महाराज, "हमारे पिता का

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प्राणरक्षा - अमृत माँ जिनवाणी से - २३

?     अमृत माँ जिनवाणी से - २३     ?                     "प्राणरक्षा"           १९५२ को ग्रन्थ के लेखक ने आचार्य शान्तिसागरजी महाराज के बारे मे जानने हेतु उनके गृहस्थ जीवन के छोटे भाई के पुत्र से मिले।उन्होंने बताया-        महाराज की दुकान पर १५-२० लोग शास्त्र सुनते थे।मलगौड़ा पाटिल उनके पास शास्त्र सुनने रोज आता था। एक रात वह शास्त्र सुनने रोज आता था। एक रात शास्त्र सुनने नहीं आया, तब शास्त्र चर्चा के पश्चात महाराज उनके घर गये, वहाँ नहीं मिलने से रात में ही उनके खेत पर पहुँच

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