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धर्म में अरुचि क्यों ? - अमृत माँ जिनवाणी से - ६४


Abhishek Jain

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?     अमृत माँ जिनवाणी से - ६४     ?


               "धर्म में अरुचि क्यों?"


                    आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने उनके शिष्य मुनिश्री वीरसागरजी महाराज को आचार्य पद प्रदान किया था।

                एक बार आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज से प्रश्न किया गया- "महाराज ! महाराज आजकल अन्य लोगो की जैनधर्म में रुचि नहीं है। जैनी क्यों अल्प संख्या वाले है?

                     उन्होंने कहा - "जौहरी की दुकान में बहुत थोड़े ग्राहक रहते हैं, फिर भी उसका अर्थलाभ विपुल मात्रा में होता है। सागभागी बेचने वाले की दुकान पर बड़ी भीड़ लगी रहती है, फिर भी बहुत थोड़ी ही आमदनी होती है। इसी प्रकार वीतराग भगवान का धर्म है। बिना निर्मल परिणाम हुए उसे पालन करने को लोगों की तबियत नहीं होती।"

                  अनादि संस्कार वश जीव असंयम की ओर जाता है। जो उपदेश उस ओर ले जाता है वह मोही जीव को अच्छा लगता है। पुरुषार्थी तथा आत्मबली व्यक्ति जितेन्द्रियता के उपदेष्टा धर्म में लगते हैं। ऐसी उच्च आत्माए थोड़ी संख्या में होती हैं।

?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  ?

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