गंभीर प्रकृति - अमृत माँ जिनवाणी से - ६१
? अमृत माँ जिनवाणी से - ६१ ?
"गंभीर प्रकृति"
आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के शिष्य आचार्यश्री वीर सागरजी महाराज ने अपने गुरु आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के संस्मरण में बताया कि-
आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज आहार में केवल दूध और चावल लेते थे। अत्यंत बलवान और सुदृढ शरीर में वह भोज्य पदार्थ थोड़े ही देर में पच जाता था, फिर भी महाराज ने यह कभी नही कहा कि गृहस्थ लोग विचारहीन हैं, एक ही पदार्थ को देते हैं।
एक दिन चंद्रसागरजी ने कहा- "महाराज ! आप दूध, चावल ही क्यों लेते हैं और भोजन क्यों नहीं करते?" कुछ देर चुप रहकर महाराज ने कहा- "जो गृहस्थ देते हैं वह मैं लेता हूँ। इन्होंने दूध चावल ही दिए, दूसरी चीज दी ही नहीं, इसलिए मैं दूध और चावल ही लेता रहा।" इस प्रकार मनोगत को जानकर लोगों ने आहार में अन्य पदार्थ देना प्रारम्भ किया।
? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
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