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आचार्यश्री की विरक्ति का क्रम - अमृत माँ जिनवाणी से - ५२


Abhishek Jain

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?    अमृत माँ जिनवाणी से - ५२    ?


       "आचार्यश्री की विरक्ति का क्रम"


        आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के जीवनी के लेखक श्री दिवाकरजी महाराज के गृहस्थ जीवन के बड़े भाई, जो उस समय मुनि श्री वर्धमान सागर जी के रूप विद्यमान थे उनसे आचार्यश्री के जीवन के बारे में जान रहे थे। उन्होंने आचार्यश्री की विरक्ति के बारे में बताया।
              
             उन्होंने कहा माघ मास में माता की मृत्यु होने के पश्चात महाराज के ह्रदय में वैराग्य का भाव वृद्धिगत हुआ। भोज से २२ मील दूर स्तवनिधि अतिशय क्षेत्र है। अन्य लोग उसे तेवंदी कहते हैं। महाराज ने प्रत्येक अमावश्या को स्तवनिधि जाने का व्रत ले लिया। वे बहिन कृष्णा बाई को साथ में भोजन बनाने को ले जाते थे। स्तवनिधि की यात्रा का आश्रय ले उन्होंने प्रपंच से छुटने का निमित्त ढूढ निकाला था। वे स्तव निधि में एक दिन ठहरा करते थे। 

             वे ज्येष्ठ मास पर्यन्त स्तवनिधि गए। उन्होंने बहिन से कहा- "अक्का ! अब हम अकेले ही स्तवनिधि जाएँगे।" अतः स्वयं भोजन साथ में रखकर ले गए। महाराज ने कुमगोंडा से कह दिया था कि मेरा भाव व्यापार का नहीं है।

             स्तवनिधि के निमित्त ये घर से गए थे, किन्तु इनका मन वैराग्य से परिपूर्ण  हो चुका था। इससे ये समीपवर्ती उत्तूर ग्राम में गए, जहाँ बालब्रम्हचारी मुनि देवेन्द्रकीर्ति महाराज, जिन्हें देवप्पा स्वामी कहते थे, विराजमान थे। सन् १९७० के भाद्रपद में महाराज ने उत्तूर जाकर उनसे क्षुल्लक दीक्षा आदि का वर्णन ज्ञात किया। देवप्पा स्वामी का महाराज पर बड़ा वात्सल्य भाव था, कारण कभी-२ भोज में माह पर्यन्त रहा करते थे। वे सतगोड़ा कि विरक्ति तथा धार्मिक प्रव्रत्ति से सुपरिचित थे। जब महाराज ने क्षुल्लक दीक्षा धारण करने का विचार व्यक्त किया, तो देवप्पा स्वामी को अपार खुशी हुई। उन्होंने लोगो से कहा था कि भोज से पाटील आया है, इनकी सब व्यवस्था करो। सतगोड़ा पाटील (महाराज) ने देवप्पा स्वामी से प्रार्थना की कि अब हमे क्षुल्लक दीक्षा दीजिए।


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