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क्षुल्लक दीक्षा - अमृत माँ जिनवाणी से - ५३


Abhishek Jain

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?    अमृत माँ जिनवाणी से - ५३    ?

                "क्षुल्लक दीक्षा"

    

               पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के क्षुल्लक दीक्षा के वर्णन मुनि वर्धमान सागरजी करते हुए लेखक को बताते हैं कि-

                देवेन्द्र कीर्ति महाराज, सतगोड़ा पाटिल की पाटिल की परिणति से पूर्ण परिचित थे, अतः उनके इशारे पर उत्तूर में दीक्षा मंडप सजाया गया। पाटिल को तालाब पर ले जाकर स्नान कराया गया। पश्चात वैभव के साथ उनका जलूस निकाला गया। उन्होंने स्वच्छ नवीन वस्त्र धारण किए थे। गाजे-बाजे के साथ जुलूस दीक्षा मंडप में आया, जहाँ इनको क्षुल्लक दीक्षा दी गई तथा उनका नाम शान्तिसागर रखा गया। 

           जब महाराज क्षुल्लक हो गए। उन्होंने घर पर कोई समाचार तक नहीं भेजा। भेजते क्यों? जब घर का द्रव्य तथा भाव, दोनो ही रूप से त्याग कर दिया था, तब वहाँ खबर भेजने का क्या प्रयोजन ? किन्तु उत्तूर का समाचार भोज आ ही गया। चिट्ठी में लिखा था कि महाराज ने क्षुल्लक दीक्षा ले ली है। उनकी दीक्षा ज्येष्ठ शुदि तेरस को हुई थी।

          वर्धमान स्वामी ने बताया कि हमे समाचार ज्येष्ठ शुदि चौदस को प्राप्त हुआ। पत्र पहले पोस्टमैन ने कुंगोड़ा(छोटे भाई) के हाथ में दिया। उसे पढ़कर कुमगोंडा बहुत रोए। वे अकेले थे। सबेरे उनका उतरा हुआ चेहरा देखकर अक्का (बहिन) ने पूंछा, "तुम्हारा मुख उदास क्यों है?"

           कुमगोंडा ने कहा- "अप्पानी दीक्षा घेतली", अर्थात महाराज ने दीक्षा ले ली। जिसको यह समाचार मिले, उसके मोही मन को संताप पहुँचा।

            हम (वर्धमान सागरजी गृहस्थ जीवन मे ) कुमगोंडा व उपाध्याय के पुत्र को लेकर उत्तूर गए। उत्तूर पहुँचकर महाराज को देखकर ही हमारी आँखों में पानी आ गया।

         महाराज ने कहा- "यहाँ क्या रोने को आये हो? तुमको भी तो हमारे सरीखी दीक्षा लेना है। रोते क्यों हो?हम चुप रह गए।


?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?

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