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विचित्र घटना एवं भयंकर प्रायश्चित ग्रहण - अमृत माँ जिनवाणी से - ६८


Abhishek Jain

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?     अमृत माँ जिनवाणी से - ६८     ?


"विचित्र घटना एवं भयंकर प्रायश्चित ग्रहण"


                    निर्ग्रन्थ रूप में आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज का दूसरा चातुर्मास नसलापुर में व्यतीत कर विहार करते हुए ऐनापुर पधारना हुआ। यहाँ एक विशेष घटना हो गई।

                   शास्त्र में मुनिदान की पद्धति इसी प्रकार कही गई है कि गृहस्थ अपने घर में जो शुद्ध आहार बनाते हैं, उसे ही वह महाव्रती मुनिराज को आहार के हेतु अर्पण करें। दूसरे के घर की सामग्री लाकर कोई दे, तो ऐसा आहार मुनियों के योग्य नहीं है।

                    नसलापुर में महाराज आहार ग्रहण को निकले। एक गृहस्थ ने अपने यहाँ भोजन की बिना किसी प्रकार की तैयारी के सहसा महाराज का पड़गाहन किया और निमित्त की बात है कि उसी दिन पड़गाहने की विधि भी मिल गई, इससे महाराज वहाँ ठहर गए।

                  अब उस बन्धु को अपनी भूल याद आयी कि मैंने यह क्या कर दिया। घर में आहार बना नहीं है और मैंने अन्न जल शुद्ध है, यहाँ भोजन को पधारिये यह कह दिया, अब तत्काल योग्य व्यवस्था करने में चूकता हूँ, तो महाराज यहाँ से चले जावेगे व् लोगों मे मेरी निंदा भी होगी। ऐसे विविध विचारों के जाल में जकड़े हुए उसके मन में एक युक्ति सूझी। उसके घर से लगा हुआ जो श्रावक का घर था, वहाँ आहार के योग्य शुद्ध सामग्री तैयार थी,अतः उसने बड़ी सफाई से सामान अपने घर में लाया। महाराज को इस बात का जरा सा भी पता नहीं लगा। अन्यथा वे वहाँ ठहरते क्यों? होनहार की बात है कि उस गृहस्थ की होशयारी या चालाकी से मुनिराज का आहार वहाँ हो गया।

                   आहार पूर्ण होने के पश्चात् महाराज को ज्ञात हुआ कि आज का आहार ग्रहण नहीं करना था। दूसरे के घर से मांगा गया भोजन आहार के काम में लाया गया था। इससे उनके चित्त में अनेक विचार उत्पन्न होने लगे।

                   ऐसी स्थिति में मुनियों के पास जो सबसे बड़ा हथियार जो प्रश्चित्य का रहता है, उसका उन्होंने अपने ऊपर प्रयोग करने का निश्चय किया।

                  उन्होंने उसी दिन मध्यान्ह में सूर्य की प्रचंड किरणों से संतप्त शिला पर जाकर ध्यान करना प्रारम्भ कर दिया। उस दिन की ग्रीष्म का भीष्म परिषह देखकर लोग घबरा गए थे, किन्तु महाराज तो महापुरुष ही ठहरे। उनकी स्थिरता अद्भुत थी।

                       कौन सोचेगा, कि पंचम काल में असंप्राप्तसृपटिका संहनन धारक साधू चतुर्थ कालीन मुनियों के समान ऐसा घोर तप करेगा?

                   उस उष्ण परिसह का परिणाम व्यथाजनक रहा लेकिन उन्होंने समतापूर्वक सहन किया। आठ दिन तक दूध के आलावा कुछ आहार नहीं लिया।

?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?

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