क्षुल्लक दीक्षा में परम्परा वश अपार विघ्न - अमृत माँ जिनवाणी से - ५७
? अमृत माँ जिनवाणी से - ५७ ?
"क्षुल्लक जीवन में परम्परा वश अपार विध्न"
आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज बचपन से ही महान स्वाध्यायशील व्यक्ति थे। वे सर्वदा शास्त्रो का चिंतन किया करते थे। विशेष स्मृति के धनी होने के कारण पूर्वापर विचार कर वे शास्त्र के मर्म को बिना सहायक के स्वयं समझ जाते थे। इसलिए उन्हे प्रचलित सदाचार की प्रवृत्ति में पायी जाने वाली त्रुटियों का धीरे-धीरे शास्त्रों के प्रकाश मे परिज्ञान होता था।
एक दिन महाराज ने कहा था, "हमने सोचा कि उपाध्याय के द्वारा पूर्व में निश्चित किये घर में जाकर भोजन करना योग्य नहीं है, इसीलिए हमने वैसा आहार नहीं लिया, इससे हमारे मार्ग में अपरिमित कष्ट आये।
लोगों को इस बात का पता नहीं था कि बिना पूर्व निश्चय के त्यागी लोग आहार को निकलते हैं, इसलिए दातार गृहस्थ को अपने यहाँ आहार दान के लिए पड़गाहना चाहिए।"
उस समय की प्रणाली के अनुसार ही लोग आहार की व्यवस्था करते थे। यह बात महाराज को आगम के विपरीत दिखी अतएव उन्होंने किसी का भी ध्यान ना कर उसी घर में आहार लेने की प्रतिज्ञा की जहाँ शास्त्रानुसार आहार प्राप्त होगा।
इसका फल यह हुआ कि इनको कई दिन तक आहार नहीं मिलता था।
प्रभात में मंदिर के दर्शन कर चर्या को निकले, उस समय यदि किसी गृहस्थ ने कह दिया, "महाराज ! आज हमारे गृह में आहार कीजिए,तो उसके यहाँ चले गए, अन्यथा दूसरों के घर के समक्ष अपने रूप को दिखते हुए चले। यदि पड़गाहे गए तो आहार किया अन्यथा दूसरों वह दिन निराहार ही व्यतीत होता था।
इस प्रकार कभी-कभी चार-चार, पाँच-पाँच दिन तक निराहार रहना पड़ता था।
ऐसे अवसर पर उपाध्याय भी प्रतिकूल हो गए थे। कारण इस अनुदिष्ट आहार की पद्धति के कारण उनको गृहस्थ के यहाँ जो अनायास आहार मिल जाता था, उनका वह लाभ बंद हो गया।"
? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
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