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परम्परा वश अपार विघ्न - अमृत माँ जिनवाणी से - ५८


Abhishek Jain

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?    अमृत माँ जिनवाणी से - ५८    ?


            "परम्परा वश अपार विध्न"


                 उस समय के मुनि लोग भी कहने लगे कि ऐसा करने से काम नहीं होगा। ये पंचम काल है। इसे देखकर ही आचरण करना चाहिए। ऐसी बात सुनकर आगम भक्त शान्तिसागर महाराज कहते थे, "यदि शास्त्रानुसार जीवन नहीं बनेगा, तो हम उपवास करते हुए समाधिमरण को ग्रहण करेंगे, किन्तु आगम की आज्ञा की उलंघन नहीं करेंगे।"

                  उस समय की परिस्थिति ऐसी ही विकट थी, जैसे की हम पुराणों में, आदिनाथ भगवान के समय विधमान पढ़ते हैं।

                     जहाँ श्रावको को अपने कर्तव्य का ज्ञान नहीं है, जानकर उपाध्याय लालच वश विध्नकारी बन रहे हैं तथा बड़े-बड़े मुनि कलदोष के नाम पर शास्त्र की आज्ञा को भुला रहे हैं, वहाँ हमारा भविष्य का जीवन कैसे चलेगा, इस बात की महाराज को तनिक भी चिंता नहीं थी।

                  उन्हें एक मात्र चिंता थी तो जिनवाणी के अनुसार प्रवृत्ति करने की। जिनेन्द्र की आज्ञानुसार प्रवृत्ति करते हुए मृत्यु उन्हें बड़ी प्रिय मालूम पड़ती थी और आगम के विरुद्ध जीवन को वे आत्मा की मृत्यु सोचते थे।

                उस कठिन परिस्थिति में उनकी उग्र तपश्चर्या का अनुमान कौन कर सकता है?

                 अत्यंत बलशाली शरीर को योग्य काल में आहार देना आवश्यक है। भोजन ना मिलने से बड़े-बड़े भक्त भगवान को भुला दिया करते हैं। क्षुधा की असह्य वेदना में मनुष्य पत्ते व घास खाकर इन प्राणों के रक्षण के लिए तत्पर होता है। संसार में ऐसा कोई अनर्थ नहीं है, जिसे पेट की ज्वाला से पीड़ित व्यक्ति ना करे।

                   ऐसी लोकस्थिति होते हुए भी शान्तिसागर महाराज वज्र की तरह अचल रहे। चर्या के लिए वे बराबर निकलते थे। आहार नहीं मिलता था, तो लाभान्तराय कर्म का उदय तीव्र है, ऐसा जानते हुए शांत भाव से मंदिर में आकर धर्म-ध्यान में अपना समय व्यतीत करते थे।


?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  ?

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