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मुनिमार्ग के सच्चे सुधारक - अमृत माँ जिनवाणी से - ६३


Abhishek Jain

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?     अमृत माँ जिनवाणी से - ६३     ?


          "मुनि मार्ग के सच्चे सुधारक"


                आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के संबंध में आचार्यश्री वीरसागरजी महाराज कहने लगे- "आचार्य महाराज ने हम सब का अनंत उपकार किया है। उन्होंने इस युग में मुनिधर्म का सच्चा स्वरूप आचरण करके बताया था।

                    उनके पूर्व उत्तर में तो मुनियों का दर्शन नहीं था और दक्षिण में जहाँ कहीं मुनि थे, उनकी चर्या विचित्र प्रकार की थी। वे दिगम्बर मुनि कहलाते भर थे, किन्तु ऊपर से एक वस्त्र ओढ़े रहते थे।

                  वे मुनि उस जगह जाते थे, जहाँ उपाध्याय पहले से जाकर पक्की व्यवस्था कर लेता था। लोगों को पदगाहने की विधी मालूम नहीं थी। उपाध्याय उस समय मुनि को आहार कराता था और स्वयं भी माल उड़ाता था।

                 उस वातावरण को देख शान्तिसागर महाराज के मन ने यह अनुभव किया कि यह तो निर्ग्रन्थ मुनि की चर्या नहीं हो सकती। उन्होंने उपाध्याय द्वारा पूर्व निर्णीत घर में जाना एकदम छोड़ दिया। दिगम्बर मुद्रा धारण कर उन्होंने आहार के लिए बिहार करना प्रारम्भ दिया।

               लोगो को विधि मालूम ना होने से वे उनको यथाशास्त्र नहीं पडगाहते थे। इससे महाराज लौट करके चुपचाप आ जाते। शांत भाव से वह दिन उपवास पूर्वक व्यतीत करते थे। 

                 दूसरे दिन भी ऐसा ही हुआ। धर्मात्मा गृहस्थो में चिंता उत्पन्न हो गई। फिर भी वे नहीं जानते थे कि इनके उपवास का क्या कारण है? क्योंकि वे गुरुदेव शांत थे और किसी से अपनी बात नहीं कहते थे।

                उनकी चर्या देखकर कोई भी आदिप्रभु के युग को स्मरण करेगा। ऐसी परिस्थिति के मध्य जब चार दिन बीत गए, तब ग्राम के प्रमुख पाटील ने उपाध्याय को बुलाकर कड़े शब्दों में कहा- "साधुला मरतोस काय ? विधि का सांगत नाहीं ? साधु को मरेगा क्या ? विधि क्यों नहीं बताता ?" तब उपाध्याय ने ठीक-ठीक विधि बताई, तब पडगाहना शुरू हुआ।

?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  ?

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