दुष्ट का प्रसंग - अमृत माँ जिनवाणी से - ४६
? अमृत माँ जिनवाणी से - ४६ ?
"दुष्ट का प्रसंग"
कोगनोली चातुर्मास के समय आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज कोगनोली की गुफा मे रहा करते थे। आहार के लिए वे सवेरे योग्य काल में जाते थे।
मार्ग में एक विप्रराज का ग्रह पड़ता था। उनका दिगम्बर रूप देखते हुए एक दिन उसका दिमाग कुछ गरम हो गया। उसने आकर दुष्ट की भाषा में इसने अपने घर के सामने से जाने की आपत्ति की। उसके ह्रदय को पीड़ा देने मे क्या लाभ यह सोचकर इन्होंने आने-जाने का मार्ग बदल दिया।
लगभग दो सप्ताह के बाद उस ब्राम्हाण के चित्त में इनकी शांति ने असाधारण परिवर्तन किया। उसे अपनी मूर्खता व दुष्टता पर बड़ा दुख हुआ।
उसने इनके पास आकर अपनी भूल के लिए माफी मांगी और प्रार्थना की कि महाराज पुनः उसी मार्ग से गमनागमन किया करें,मुझे कोई भी आपत्ति नही है।
महाराज के मन में कषाय भाव तो था नही। यहाँ ह्रदय स्फटिक तुल्य निर्मल था, अतः विप्रराज की विनय पर ध्यान दे,इन्होंने उसी मार्ग से पुनः आना जाना प्रारम्भ कर दिया।
मुनिजीवन में दुष्ट जीवकृत उपद्रव सदा आया करते हैं। यही कारण था कि निर्ग्रन्थ दीक्षा देने के पूर्व गुरु ने पहले ही सचेत किया था किस प्रकार का उपद्रव आया करते हैं, जिनको जितने के लिए कषाय को पूर्णतः कषाय विमुक्त बनाना पड़ता है।
? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
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