भारतीय संस्कृति एवं रामकाव्य
भारतीय संस्कृति एवं रामकाव्य
भारतीय संस्कृति प्राचीनकाल से परिष्कृत होती हुई सतत विकास की और प्रवाहमान है। विगत समय से लेकर वर्तमान पर्यन्त यदि हम भारतीय संस्कृति का अनुशीलन करें तो हम देखते हैं कि पूर्वकाल में जहाँ तक इतिहास की दृष्टि जाती है वहाँ तक बराबर श्रमण व वैदिक परम्परा के स्रोत दृष्टिगोचर होते हैं। इससे जान पड़ता है कि इतिहासातीत काल से वैदिक व श्रमण परम्पराएँ क्षेत्र और काल की दृष्टि से साथ-साथ विकसित होती चली आयीं हैं तथा भारतीय संस्कृति का निर्माण श्रमण और वैदिक परम्परा के मेल से ही हुआ है। इसमें श्रमण परम्परा का प्रतिनिधित्व जैन और बौद्ध धारा ने तथा वैदिक परम्परा का प्रतिनिधित्व हिन्दू धारा ने किया है। इन दोनों परम्पराओं में जहाँ लोकजीवन व सामाजिक व्यवस्था की समान समस्याएँ रहीं हैं वहीं दोनों परम्पराओं का अलग-अलग निजि वैशिष्ट्य भी रहा है। इनमें जो समानता है वह भारतीय एकत्व धारा का बोधक है और जो वैषम्य है वह दोनों धाराओं के अपने-अपने वैशिष्ट्य का द्योतक होते हुए भी भारतीय संस्कृति की समृद्धि का बोध कराता है।
इन दोनों परम्पराओं में अनेकता, विविधता तथा विचित्रता के बीच भी समन्वय की जो शान्त भावना काम करती रही ह,ै यही भारतीय संस्कृति की मानवजाति के लिए सबसे बड़ी देन है। अपने - अपने वैशिष्ट्य को सुरक्षित रखते हुए भी एक समन्वय के सूत्र में ग्रथित होने के कारण दोनों परम्पराओं में एक जीती-जागती समग्रता की भावना अद्यतन अक्षुण्ण बनी रही है। राजनीतिक एवं सामाजिक विपर्ययों एवं क्रान्तिकारी बाह्य परिवर्तनों के बीच भी समग्रता की इस भावना ने ही दोनों परम्पराओं से निर्मित इस भारतीय संस्कृति को विस्मृति के घनान्धकार में विलीन नहीं होने दिया जबकि भारतीय सभ्यता की समकालीन अन्य प्राचीन सभ्यताएँ नष्ट होकर इतिहास मात्र में अपने अस्तित्व होने भर की सूचना दे रहीं हैं। इस समन्वय के सूत्रधार हैं वैदिक व श्रमण परम्परा के ऋषि-मुनि। वैदिक व श्रमण परम्परा के प्रतिनिधि तपस्वी ऋषि-मुनियों के प्रयास से ही भारतीय संस्कृति में सदैव अद्वैत की ध्वनि गूंज रही है। इन तपस्वी ऋषि-मुनियों ने इस महान वस्तु को पहले से ही पहचान रखा था। उनकी हमेशा से ही यह दिव्य देशना रही है कि संसार में न कोई ऊँच है, न कोई नीच, सभी में दिव्यता है। हमें एक दूसरे के दोषों को नहीं देखते हुए उनमें छिपे हुए गुण ही देखने चाहिए। यह भारतीय ऋषि-मुनियों की देशना का ही परिणाम है कि भारत भूमि में भिन्न-भिन्न संस्कृतियों का समन्वय हुआ है। भारत के बाहर से आनेवाले द्रविड, आर्य, मंगौल, युनानी, युची, शक, आभीर, हूण और तुर्क, इनका कोई अलग अस्तित्व नहीं है, ये आर्य सभ्यता का ही एक हिस्सा बन चुके हैं। इस प्रकार भारतीय संस्कृति इस देश में आकर बसनेवाली अनेक जातियों का ही सम्मिश्रण है।
रामायण और महाभारत भारतीय संस्कृति के दो महाकाव्य हैं। महाकाव्यों की रचना तभी संभव होती है जब संस्कृतियों की विशाल धाराएँ किसी संगम पर जाकर मिलनेवाली होती हैं। भारत में संस्कृति समन्वय की जो प्रक्रिया चल रही थी, ये दोनों काव्य भारतीय संस्कृति समन्वय की ही अभिव्यक्ति है। भारत में जो संस्कृति समन्वय हुआ रामकथा उसका उज्जवल प्रतीक है। रामकथा के इस समन्वयात्मक उपादेयता के कारण ही भारत की सभी प्रमुख भाषाओं में रामकथाएँ लिखी गयी हैं। इनमें प्रत्येक रामकथा अपने-अपने क्षेत्र में अत्यन्त लोकप्रिय बनी। इस लोकप्रियता से भारतीय संस्कृति की एकरूपता अत्यन्त प्रबुद्ध हुई।
प्रारंभ में संस्कृत, प्राकृत, पालि और अपभ्रंश भाषा में रामकथा पर काव्य लिखे गये। उसके बाद जब आधुनिक भाषाओं का काल आया तब इनमें भी रामकथा पर एक से एक उत्तम काव्य लिखे गये। आधुनिक भाषाओं में लिखे गये रामकाव्यों में से कुछ रामकाव्य है, कंबर कृत तमिल रामायण (12वींसदी), रंगनाथ कृत तेलुगु द्विपद रामायण (14वीं सदी) राम कृत रामचरितम् (मलयालम, 14वीं सदी), नरहरि कृत तोरवे रामायण (कन्नड, 16वीं सदी), दिवाकर प्रकाशभट्ट कृत रामावतार चरित्र (काश्मीरी, 18वीं सदी), माधव केदली कृत रामायण (असमिया, 14वीं सदी), कृतिवास कृत कृतिवास रामायण(बंगला, 15वीं सदी), गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस (हिन्दी, 16वीं सदी), उल्कलवाल्मीकि बलरामदास कृत बलरामदास रामायण (उडिया, 16वीं सदी), एकनाथ कृत भावार्थ रामायण (मराठी, 16वीं सदी), गिरधरदास कृत रामायण (गुजराती, 19वीं सदी), मुन्शी जगन्नाथ खुश्तर कृत रामायण खुश्तर (उर्दू, 19वीं सदी), मुल्ला मसीहा कृत रामायवामसीही (फारसी, 17वी सदी)
उपरोक्त सभी रामकथाओं की रचना मुख्यतः तीन कथाओं को लेकर पूर्ण हुई है। पहली कथा अयोध्या के राजप्रसाद की है, दूसरी रावण की और तीसरी किष्किंधा के वानरों की। इन तीनों कथाओं के नायक हैं, क्रमशः राम, रावण और हनुमान, जो तत्कालीन प्रायः सम्पूर्ण भारत क्षेत्र के धर्म, दर्शन एवं संस्कृतियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन तीनों के समन्वय का साकार रूप हमें रामकथा काव्य में दिखायी देता है। इस ही कारण एक ही कथा-सूत्र में अयोध्या, किष्किंधा और लंका इन तीनों के बँध जाने से सम्पूर्ण देश एक दिखता है। रामकथा के इस समन्वयात्मक उपादेयता के कारण ही भारत की सभी प्रमुख भाषाओं में रामकथाएँ लिखी गयी हैं। इनमें प्रत्येक रामकथा अपने-अपने क्षेत्र में अत्यन्त लोकप्रिय बनी। इस लोकप्रियता से भारतीय संस्कृति की एकरूपता अत्यन्त प्रबुद्ध हुई।
इससे यह बात सरलता से सिद्ध हो जाती है कि रामकथा ने इस देश की कितनी सेवा की है और कैसे इस कथा को लेकर सारा देश लगभग एक आदर्श (सांस्कृतिक-समन्वय) की ओर उन्मुख रहा है। इसके साथ यदि तिब्बत, सिंहल, खोतान, हिन्दचीन, श्याम, ब्रह्मदेश और हिन्देशिया में रचित रामकाव्यों की सारिणी मिला दें तो वास्तव में यह मानना पडे़गा कि रामकथा न केवल भारतीय अपितु एशियाई संस्कृति का भी एक महत्वपूर्ण तत्व है और राम एक महान संस्कृति प्रवर्तक हैं।
अपभ्रंश साहित्य के प्रथम साहित्यकार स्वयंभू हैं तथा स्वयंभू द्वारा रचित ‘‘पउमचरिउ’’ अपभ्रंश साहित्य का प्रथम महाकाव्य है, जिसकी चर्चा आगे की जायेगी।
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