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पउमचरिउ का प्रथम विद्याधरकाण्ड थ्वससवू जीपे 0


Sneh Jain

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पउमचरिउ का प्रथम विद्याधरकाण्ड

जैन रामकथा का प्रथम विद्याधरकाण्ड आगे की सम्पूर्ण रामकथा का बीज है। इस विद्याधरकाण्ड का सही रूप से आकलन किया जाने पर ही अन्य रामकथाओं के सन्दर्भ में जैन रामकथा के वैषिष्ट्य को समझा जा सकता है। यह विद्याधरकाण्ड भारतदेष के षक्तिषाली विद्याधरो के कथन के माध्यम से भारतदेष की सभ्यता एवं संस्कृति का एक सुन्दर चित्रण है। इसमें भारतदेष में विभिन्न वंषों की उत्पत्ति एवं उन वंषों में रहे सम्बन्धों को बताया गया है। आगे की सम्पूर्ण रामकथा का सम्बन्ध भी इन्हीं वंषों से है। ये वंष हैं- इक्ष्वाकुवंष, विद्याधरवंष, राक्षसवंष, वानरवंष।

इस अनन्त, निरपेक्ष, निराकार और शून्यरूप सम्पूर्ण अलोकाकाश के मध्य चौदह राजू प्रमाण त्रिलोक है। त्रिलोक में एक राजू प्रमाण तिर्यक्लोक है और तिर्यकलोक में एक लाख योजन विस्तार वाला जम्बूद्वीप है। उस जम्बूद्वीप के भीतर सुमेरुपर्वत है तथा सुमेरुपर्वत के दक्षिणभाग में भरतक्षेत्र स्थित है। इस भरतक्षेत्र में अवसर्पिणी काल के बीतनेपर प्रतिश्रुत, सन्मतिवान्, क्षेमंकर, क्षेमन्धर, सीमंकर, सीमन्धर, चक्षुष्मान, यशस्वी, विमलवाहन, अभिचन्द्र, चन्द्राभ, मरुदेव, प्रसेनजित व अन्तिम 14वें कुलकर नाभिराज हुए।नाभिराज की पत्नी मरुदेवी से ऋषभजिन हुए।

ऋषभदेव का अमरकुमारों के साथ क्रीड़ा करते हुए बीसलाखपूर्व समय बीत गया। कल्पवृक्षों के नष्ट हो जाने से जीवन जीने के लिये खान-पान व पहिनने की समस्या होने पर ऋषभदेव ने लोगों को असि, मसि, कृषि, वाणिज्य और विविध प्रकार की दूसरी-दूसरी विद्याओं की शिक्षा दी। नन्दा, सुनन्दा इन दो देवियों से विवाह किया, जिनसे उनके भरत और बाहुबलि के समान प्रधान सौ पुत्र हुए। ऋषभदेव ने मनुष्यों को इक्षु रस संग्रह करने का उपदेश दिया था। तदर्थ हस्तिनापुर के राजा विमोह (श्रेयांस) ने ऋषभजिन को इक्षुरस का आहार दिया तभी से ऋषभदेव का वंश इक्ष्वाकुवंश के नाम से जाना जाने लगा।

समय के अन्तराल से जब ऋषभदेव सन्यास ग्रहण कर स्थित थे तभी नमि (ऋषभदेव के साले कच्छ के पुत्र) व विनमि (ऋषभदेव के साले महाकच्छ के पुत्र) वहाँ आये और ऋषभदेव से बोले- आपने दूसरों को तो देश विभक्त करके दे दिया पर हमारे प्रति अनुदार क्यों हैं ? तभी धरणेन्द्र अवधिज्ञान से यह सब जानकर वहाँ आया और उन दोनों को दो विद्याएँ देकर कहा- तुम दोनो विजयार्ध पर्वत की उत्तर-दक्षिण श्रेणियों के प्रमुख राजा बन जाओ। तभी एक उत्तरश्रेणी व दूसरा दक्षिणश्रेणी में स्थित हो गया। इन नमि विनमि के वंश में उत्पन्न होने वाले राजा ही अपने आपको विद्याधर कहने लगे तथा इनका वंश भी विद्याधरवंश के नाम से जाना जाने लगा।

आगे इक्ष्वाकु वंश में ऋषभदेव का निर्वाण होने तथा उनके पुत्र बाहुबलि को केवलज्ञान व भरत को वैराग्य होने पर अयोध्या में राजाओं की वंश परम्परा उच्छिन्न हो गयी। तत्पष्चात् इक्ष्वाकु वंश मे धरणीधर राजा हुए। धरणीधर के दो पुत्र थे 1. जितशत्रु 2. त्रिरथंजय। जितशत्रु से अजितजिन उत्पन्न हुए तथा त्रिरथंजय से जयसागर। जयसागर के सगर पुत्र हुआ। नमि विनमि से उद्भूत विद्याधरवंश में भी आगे सुलोचन, पूर्णघन (पूर्वमेघ) आदि राजा हुए। इस तरह प्रारम्भ में भारत में दो ही वंश थे-1. इक्ष्वाकुवंश 2. विद्याधरवंश।

 

विधाधर वंश से अन्य वंशो की उत्पत्ति -

कुछ समय पश्चात् विद्याधरवंशी राजा सुलोचन की कन्या तिलककेशा को विद्याधरवंशी राजा पूर्वमेध ने मांगा किन्तु सुलोचन के पुत्र सहस्रनयन ने अपनी बहिन तिलककेशा को  अपने ही वंश के पूर्वमेध को न देकर इक्ष्वाकुवंशी सगर को दी। तब पूर्वमेघ ने क्रोधित होकर सुलोचन को मार डाला। तभी अपने पिता सुलोचन का बदला लेने के लिये सहस्रनयन ने पूर्वमेघ को मार दिया किन्तु पूर्वमेघ का पुत्र तोयदवाहन डरकर भाग निकला। तभी उसे भीम व सुभीम मिले। भीम और सुभीम ने तोयदवाहन को कहा कि इस वैताढय में बलशाली विद्याधर तुम्हारे शत्रु हैं तुम उनके साथ विश्वस्त होकर कैसे रहोगे? और कामुकविमान, हार, राक्षसविद्या व रहने के लिये समुद्र से घिरी हुई लंकानगरी उन्हें दे दी। तोयदवाहन ने लंकापुरी में प्रवेश किया और अविचलरूप से राज्य में इस प्रकार प्रतिष्ठित हो गया जैसे राक्षसवंश का पहला अंकुर फूटा हो। इस तोयदवाहन राजा के वंश में आगे उत्पन्न हुए सभी राक्षसवंशी कहलाने लगे। राक्षसवंश में 64 सिंहासन बीतने के पश्चात् कीर्तिधवल राजा हुए। इस प्रकार विद्याधरों के परस्पर संघर्ष से राक्षसवंश की उत्पत्ति हुई।

विद्याधर वंश में आगे अतीन्द्र व पुष्पोत्तर राजा हुए। अतीन्द्र राजा के श्रीकण्ठ पुत्र व मनोहरदेवी पुत्री थी तथा पुष्पोत्तर राजा के पद्मोत्तर पुत्र तथा पद्मनाभा (कमलावती) पुत्री थी। राजा पुष्पोत्तर ने अपने पुत्र पद्मोत्तर के लिये राजा अतीन्द्र की पुत्री मनोहरदेवी की याचना की किन्तु श्रीकण्ठ ने अपनी बहिन पद्मोत्तर के लिये नही देकर लंका के राक्षसवंशीय राजा कीर्तिधवल को दी, जिससे पुष्पोत्तर बहुत कुपित हुआ। बाद में स्वयं श्रीकण्ठ पुष्पोत्तर राजा की पुत्री पद्मनाभा को लेकर अपने बहनोर्इ्र राक्षसवंशी कीर्तिधवल की शरण में गया। पुष्पोत्तर राजा भी श्रीकण्ठ का पीछा कर वहाँ पहुँचा। वहाँ पहुँचने पर कीर्तिधवल के दूत ने उनको समझा बुझाकर दोनों का विवाह करवा दिया।

बहुत दिनो के बाद श्रीकण्ठ को अपने पिता के पास जाने को व्याकुल देखकर कीर्तिधवल ने कहा- विजयार्ध पर्वत पर तुम्हारे बहुत से वैरी हैं और यहाँ तुम मेरे प्राणप्रिय मेरे अपने हो। मेरे पास अनेक बड़े बड़े द्वीप हैं इनमें से जो भी तुम्हंे अच्छा लगे वह ले लो और यही रहो। तब श्रीकण्ठ ने वानरद्वीप ले लिया। आगे इस श्रीकण्ठ के वंश मे ही अमरप्रभ राजा हुए। अमरप्रभ ने लंकानरेश राक्षसवंशी राजा की कन्या से विवाह किया। विवाह के अवसर पर किसी ने वानर के चित्र बना दिए जिससे वधू मूर्च्छित हो गयी। तभी अमरप्रभ राजा ने क्रुद्ध होकर चित्रकार को मारने के लिये कहा। तब लोगांे के यह समझाने पर कि इन्हीं वानरों के प्रसाद से यह राज्यश्री तुम्हारी आज्ञाकारी स्त्री के समान है, अमरप्रभ ने अपने पवित्र कुल के चिह्न के रूप में वानरों कोे पताकाओं ध्वजाओं व छत्रों पर चित्रित करवाया। तभी से इस वंश में उत्पन्न हुए सभी राजा वानरवंशी के नाम से विख्यात हुए।

आगे चलकर ये इक्ष्वाकुवंश में भरत व बाहुबलि, विद्याधरवंश में इन्द्र, राक्षसवंश में रावण तथा वानरवंश में बाली प्रमुख राता हुए।

वंश-विभाजन के बाद स्वयंभू ने पउमचरिउ में एक ही वंश के लोगों के बीच रहे परष्पर संबन्धों तथा विभिन्न वंशों के बीच रहे परस्पर सम्बन्धों को कुछ घटनाचक्रांे के माध्यम से चित्रित किया है, जो इस प्रकार है -

इक्ष्वाकु वंश:-

इक्ष्वाकु कुल के नायक ऋषभजिन को केवलज्ञान प्राप्त होने के बाद उनके पुत्र भरत को ऋद्धि प्राप्त हुई। सबको अपने अधीन कर लेने के बाद भरत की अधीनता मात्र स्वाभिमानी बाहुबलि ने स्वीकार नही की। तब भरत ने अपनी आज्ञा मनवाने अपने दूत बाहुबलि के पास भेजे। दूत द्वारा बाहुबलि को भरत की सेवा अंगीकार करने के लिये कहने पर बाहुबलि ने गरजकर कहा -‘एक बाप की आज्ञा और एक उनकी धरती, दूसरी आज्ञा स्वीकार नहीं की जा सकती। प्रवास करते समय परम जिनेश्वर ने जो कुछ भी विभाजन करके दिया है वही हमारा सुख निधान शासन है-ना ही मैं लेता हूँ ना ही देता हूँ’। इससे भरत व बाहुबलि में युद्ध हुआ। युद्ध में बाहुबलि विजयी हुए।

विद्याधर, राक्षस एवं वानर वंश

इक्ष्वाकुवंशी राजा ऋषभदेव से ही आश्रय एवं विद्या ग्रहण कर अपने आपको विद्याधर कहलाने वाले ये विद्याधर प्रारम्भ में राक्षस एवं वानर वंश से अधिक शक्तिशाली थे। इसी कारण ये चाहते थे कि ये कमजोर राक्षस और वानर उनकेे अधीनस्थ रहकर उनके इच्छानुसार जीवें। अपनी शक्ति से ही इन्होंनें राक्षसवंषियों व वानरवंषियों के नगर लंका व किष्किन्धापुरी पर भी अपना आधिपत्य कर लिया। शुरु में तो विद्याधरों की शासन प्रवृति से राक्षस व वानरवंषी डर-डर कर जीयेेे तथा वानरों व राक्षसों ने मिलकर ही इन विद्याधरों से युद्ध किया। आगे जैसे ही राक्षसवंष में पराक्रमी राजा रावण  हुआ उसने विद्याधरों से अपनी लंका पुनः ले ली तथा वानरों को भी उनकी किष्किन्धपुरी वापस दिलवा दी। इस तरह अब तक राक्षस व वानरवंश में मैत्री सम्बन्ध स्थापित होने से वानरवंश सदैव राक्षसवंश का सहयोगी था। किंतु जैसे ही आगे वानरवंश में बालि जैसा पराक्रमी शासक हुआ उसने अब तक की जो राक्षसों के अधीन रहने की परम्परा थी वह तोड़ दी और अपना अलग अस्तित्व कायम किया।

शक्ति की हीनता व अधिकता के आधार पर उपरोक्त तीनों वंशो के परष्पर संबन्धों को पउमचरिउ में निम्न रूप में बताया गया है-

1. विद्याधर विद्यामन्दिर की कन्या श्रीमाला ने जब विद्यमान सभी विद्याधरों को छोडकर वानरवंशी किष्किन्ध को माला पहना दी तो विद्याधर विजयसिंह भड़क उठा और कहा - श्रेष्ठ विद्याधरों के मध्य वानरों को प्रवेश क्यों दिया गया? वर को मारकर वानरवंश की जड़ उखाड दो। यह सुनकर वानर अन्धक ने भी ललकारा - तुम विद्याधर और हम वानर यह कौनसा छल है ?

2. विद्याधर इन्द्र व राक्षस मालि के बीच हुए युद्ध में मालि को पराजित होते हुए देख इन्द्र अपने आपको देव सम्बोधित करते हुए मालि से कहता है - अरे मानव क्या देव के समान दानव (राक्षस) हो सकते हैं ? तब मालि ने कहा-तुम कौन से देव हो, तुमने तो केवल इन्द्रजाल सीखा है।

3. वानरवंशी बाली ने विशुद्धमति निर्ग्रन्थ मुनि को छोड़कर और किसी इन्द्र को नमस्कार न करने रूप   सम्यग्दर्शन व्रत ले लिया। एक दिन रावण के दूत ने बालि के संसर्ग में रावण का जयघोष किया लेकिन बाली ने अपने व्रत के कारण उसके साथ जयकार नही किया और अन्यमनस्क होकर रह गया। इससे दूत ने बाली को यह कहकर अपमानित किया ‘जो कोई भी हो, जो नमस्कार करेगा, श्री उसी की होगी। या तो तुम इस नगर से चले जाओ, नहीं तो कल रावण से युद्ध के लिये तैयार रहो’। तब दोनो के बीच हुए युद्ध में बाली की शानदार विजय हुई।

इस प्रकार विद्याधरकाण्ड में कवि स्वयंभू ने इस तथ्य को उजागर किया है कि तीन वंश- विद्याधर, राक्षस एवं वानर परस्पर चाहे कितना ही लड़े हों और इनमें कितना ही वैमनस्य रहा हो किन्तु इक्ष्वाकुवंश का इनसे किसी भी बात को लेकर आमना सामना नहीं हुआ बल्कि इन तीनों का इस वंश से आदरसम्मान का भाव ही रहा है। जैसे - एकबार पूजा में हुए विघ्न को लेकर रावण व सहस्रकिरण के मध्य हुए युद्ध में रावण ने सहस्रकिरण को बन्दी बना लिया। तब जंघाचरणमुनि ने अपने पुत्र सहस्रकिरण को मुक्त करने के लिये रावण को कहा तो रावण ने यह कहते हुए शीघ्र ही मुक्त कर दिया कि मेरा इनके साथ किस बात का क्रोध ? केवल पूजा को लेकर हमारा युद्ध हुआ था, ये आज भी मेरे प्रभु हैं।वैसे ही इक्ष्वाकुवंशी भी चाहे परष्पर कितना भी लडंे़ हो किन्तु इन्होंने इन तीनों वंषों के बीच कभी हस्तक्षेप नही किया साथ ही अपने मूल सिद्धान्तों का पालन करते हुए तथा अपनी बौद्धिक स्वतन्त्रता को कायम रखते हुए उदारवादी दृष्टिकोण से सम्पूर्ण मानव समाज के साथ रहते आये हैं।

आज हम इक्ष्वाकुवंषियों के लिए भारतदेष में अपना सम्मान पूर्ववत बनाये रखने हेतु इस विद्याधरकाण्ड का अध्ययन बहुत आवष्यक है। जो भी पउमचरिउ के विद्याधरकाण्ड का विस्तृत रूप से अध्ययन करना चाहे, उनके लिए इक्ष्वाकु, विद्याधर, राक्षस एवं वानरवंष के राजाओं की वंशावली दी जा रही है। इससे विद्यााधरकाण्ड को समझने में आसानी रहेगी।

इक्ष्वाकुवंश:-  ऋषभजिन, भरत, बाहुबलि, धरणीधर, त्रिरथंजय, जितशत्रु , अजितनाथ

जयसागर, सगर, भीम, भगीरथ, मुनि जंधाचरण,                       सहस्रकिरण, अणरण्य,अनन्तरथ, दशरथ, राम । 

विद्याद्यरवंशः-   नमि, विनमि, पूर्णघन, मेघवाहन, सुलोचन, सहस्रनयन, विद्यामन्दिर, विजयसिंह,  शनिवेग, भिन्दपाल, विद्युद्वाहन, सहस्त्रार, इन्द्र,                 यम, धनद,चन्द्रोदर, वैश्रवण, खरदूषण, विराधित, ज्वलनसिंह, महेन्द्र, प्रह्लाद।

राक्षसवंश:-    भीम, सुभीम, तोयदवाहन, महारक्ष, देवरक्ष, कीर्तिधवल, तडित्केश, सुकेश, श्रीमाली,  सुमाली, माल्यवन्त, रत्नाश्रव, दशानन, भानुकर्ण,                विभीषण,इन्द्रजीत, मेघवाहन, हस्त, प्रहस्त,अक्षयकुमार।

वानरवंश:-     श्रीकंठ, वज्रकंठ, इन्द्रायुध, इन्द्रमूर्ति,मेरु, समन्दर, पवनगति, रविप्रभ,अमरप्रभ, कपिध्वज, नयनानन्द, खेचरानन्द, गिरिनन्दन,                        उदधिरथ, प्रतिचन्द्र,किष्किन्ध, अन्धक, पवनंजय, हनुमान, ऋक्षुरज, सूररज, नील, नल, बाली,सुग्रीव, जाम्बवन्त, शशिकरण, अंग,                   अंगद पवनंजय, हनुमान ।

आगे रामकथा के पात्रों के जीवन के चित्रण के माध्यम से जैन रामकथा को समझने का प्रयास किया जायेगा।

 

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