अपभ्रंश भाषा में रचित प्रथम महाकाव्य: पउमचरिउ (राम चरित्र)
अपभ्रंश के प्रबन्ध ग्रन्थों में सर्वप्रथम ‘पउमचरिउ’ का नाम आता हैं। पउमचरिउ रामकथा पर आधारित श्रेष्ठ महाकाव्य है। यह महाकाव्य 90 संधियों में पूर्ण होता है। पउमचरिउ की 83 संधियाँ स्वयं स्वयंभू द्वारा तथा शेष 7 संधियाँ स्वयंभू के पुत्र त्रिभुवन द्वारा लिखी गयी है। स्वयंभू कवि के पउमचरिउ का आधार आचार्य रविषेण का पद््मपुराण रहा है। उन्होंने लिखा है ‘रविसेणायरिय-पसाएं बुद्धिएॅ अवगाहिय कइराएं’ अर्थात् रविषेण के प्रसाद से कविराज स्वयंभू ने इसका अपनी बुद्धि से अवगाहन किया है। यहाँ स्वयंभू आचार्य रविषेण के पद्मपुराण के आधार को लेकर भी इसका अवनी बुद्धि से अवगाहन करने की बात करते हैं तो इसका आशय एकदम स्पष्ट होता है कि स्वयंभू रविषेणाचार्य की तरह पउमचरिउ को धर्म ग्रंथ न बनाकर एक विशुद्ध साहित्यिक कोटि का काव्य बनाना चाहते थे। तदर्थ उन्होंने पद्मपुराण के आधार को यथावत ग्रहण कर भी अपनी अनुभूति को अपनी शैली में अपने तरीके से अभिव्यक्त किया। इसके लिए उन्होंने पद्मपुराण के कितने ही प्रसंगों को अपने काव्य में नहीं लिया तथा कितने ही प्रसंगों को नया आयाम दिया तथा उन प्रसंगों को भी अपनी शैली में अपने तरीके से अभिव्यक्त किया। पउमचरिउ में स्वयं द्वारा रचित 83 संधियों में उन्होंने पद्मपुराण के सीता के दीक्षा ग्रहण करने तक के कथानक को ही अपने काव्य में ग्रहण किया है।
सीता के दीक्षा के साथ अपने काव्य को विराम देने में ही स्वयंभू का सन्तुलित व्यक्तित्व उभरकर आया है। राम का क्षमा भाव धारण करना तथा सीता का राग भाव से निवृत्त होना ही स्वयंभू को पर्याप्त लगा था। शायद वे पूर्वभव व भविष्यत से अधिक वर्तमान भव के पक्षकार थे। उन्होंने वर्तमान जगत में सीता को राम से पहले वैराग्य भाव धारण करते देखा तो अपने सन्तुलित व्यक्तित्व के कारण सीता के सम्मान में अपने काव्य को वहीं विराम दे दिया। वैसे देखा जाय तो आगे का कथानक भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। काव्य की आगे की संधियों में राम अपनी मानवीय कमजोरियों को जीतकर शक्तिवान बने हैं तथा इन्द्र पद प्राप्त कर कमजोर बनी सीता को भी शक्ति प्रदान की है। इस आगे के कथानक को स्वयंभू पुत्र त्रिभुवन ने 7 संधियों में लिखकर पूरा किया।
पउमचरिउ में पाँच काण्ड़ हैं - 1.विद्याद्यर काण्ड 2. अयोध्या काण्ड 3. सुन्दर काण्ड 4. युद्ध काण्ड 5. उत्तर काण्ड । विद्याधर काण्ड़ में विभिन्न वंशों का उद्भव तथा इन सभी वंशों में परस्पर रहे सम्बन्धों का कथन हुआ है। अयोध्या काण्ड़ में राम के जन्मस्थान अयोघ्या से लेकर वनवास के समय उनके किष्किन्धानगर पहँुचने तक का उल्लेख हुआ है। राम का विवाह एवं वनवास, राम-लक्ष्मण के पराक्रम, राम-लक्ष्मण के द्वारा दुःखियों की रक्षा से सम्बन्धित अवान्तर कथाएँ एवं सीता हरण इस काण्ड के मुख्य विषय रहे हैं।
सुन्दर काण्ड़ हनुमान की विजयों का काण्ड़ है। इसमें हनुमान सीता का वृत्तान्त राम तक ले जाने में सफल हुए हैं। युद्धकाण्ड सीता की प्राप्ति को लेकर राम-रावण के बीच हुए युद्ध से सम्बन्धित है। युद्धकाण्ड़ का पूरा वातावरण वीरता का दृश्य उपस्थित करता है। अन्तिम उत्तरकाण्ड़ सम्पूर्ण पउमचरिउ का उपसंहार है। इसमें रावण की मृत्यु, राम का अयोध्यागमन, राम का राज्याभिषेक, सीता का निर्वासन, सीता की अग्निपरीक्षा, सीता की जिनदीक्षा का उल्लेख हुआ है। पउमचरिउ की अंतिम 7 संधियाँ जो स्वयंभूपुत्र त्रिभुवन द्वारा रचित है उसमें शान्ति, वैराग्य एवं निर्वेद का कथन हुआ है।
उपरोक्त पाँचों काण्ड़ों में प्रथम विद्याधरकाण्ड सम्पूर्ण रामकथा का बीज है। इस काण्ड की विषयवस्तु को संक्षिप्त में समझे बिना जैनराम कथा के स्वरूप को सही रूप में नहीं समझा जा सकता है। अतः आगे विद्याधरकाण्ड के विषय में संक्षिप्त में बताया जायेगा। इसके बाद जैन रामकथा के मुख्य-मुख्य बिन्दुओं पर प्रकाश डालकर अपभ्रंश के अन्य महत्वपूर्ण ग्रंथों की महत्वपूर्ण विषयवस्तु को भी बताने का प्रयास रहेगा।
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