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JainSamaj.World
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कर्म विषयक कथन


Sneh Jain

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आचार्य योगिन्दु कर्म के विषय में स्पष्ट करते हैं किन्तु वे उन कर्मों की नाम सहित व्याख्या नहीं करते, क्योंकि उनके अपने जैन सम्प्रदाय में प्रत्येक धर्म ग्रंथ में इसका उल्लेख होने से प्रायः सभी इससे परिचित हैं। वे कर्म के विषय में कहते हैं कि कर्म से आच्छादित हुआ जीव अपने मूल आत्म स्वभाव को प्राप्त नहीं करता है। वैसे ये आठ कर्म हैं - ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र, अन्तराय। ज्ञान का आवरण होने से प्राणी ज्ञान के सही स्वरूप से अवगत नहीं होता, दर्शन का आवरण होने से वस्तु के स्वरूप का सही दर्शन नहीं होता। इसी प्रकार अन्य सभी कर्मों से आच्छादित हुआ जीव अपने आत्म स्वभाव को प्राप्त नहीं करता। सिद्ध आठों कर्मों से मुक्त होते हैं तथा अरिहन्त चार कर्मों से मुक्त होते हैं।  देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 

61.   ते पुणु जीवहँ जोइया अट्ठ वि कम्म हवंति

      जेहि जि झंपिय जीव णवि अप्प-सहाउ लहंति।। 61।।

अर्थ - हे योगी! जीवों के वे कर्म तथापि आठ ही होते है, जिनसे आच्छादित किये हुए जीव आत्म स्वभाव को प्राप्त नहीं करते हैं।

शब्दार्थ - ते - वे, पुणु -तथापि, जीवहँ -जीव के, जोइया - हे योगी, अट्ठ -आठ, वि - ही, कम्म - कर्म, हवंति - होते हैं, जेहि - जिनसे, जि - ही, झंपिय - आच्छादित किये हुए, जीव-जीव, णवि - नहीं अप्प-सहाउ- आत्म स्वभाव को, लहंति - प्राप्त करते हैं।

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