आत्मा का चरम शरीर प्रमाणरूप स्वरूप
आत्मा का सर्वव्यापक व जड़ स्वरूप का कथन करने के बाद आचार्य कहते हैं कि आत्मा का स्वरूप चरमशरीर प्रमाण भी है क्योंकि निमित्त से रहित हुए शुद्ध जीव का न क्षय होता है और न वृद्धि होती है। देखिये इस कथन से सम्बन्धित दोहा -
54. कारण - विरहिउ सुद्ध-जिउ वड्ढइ खिरइ ण जेण।
चरम-सरीर-पमाणु जिउ जिणवर बोल्लहिं तेण।। 54।।
अर्थ - निमित्त से रहित शुद्ध जीव जिस (निमित्त) के कारण से बढता-खिरता नहीं है, उस (निमित्त) के कारण जिनेन्द्रदेव आत्मा को सम्पूर्ण (अन्तिम) शरीर प्रमाण कहते हैं।
शब्दार्थ - कारण-विरहिउ - कारण से रहित, सुद्ध-जिउ -शुद्ध जीव, वड्ढइ-बढता है, खिरइ-घटता है, ण-नहीं, जेण-जिस कारण से, चरम-सरीर-पमाणु-चरमशरीर प्रमाण, जिउ-आत्मा को, जिणवर-जिनेन्द्रदेव, बोल्लहिं-कहते हैं, तेण-उस कारण।
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