परमात्मा का वीतराग स्वरूप
आचार्य योगीन्दु कहते है कि जो सभी प्रकार के बन्ध और संसार से रहित है, वह ही परम आत्मा है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
46. जसु परमत्थे ँ बंधु णवि जोइय ण वि संसारु ।
सो परमप्पउ जाणि तुहुँ मणि मिल्लिवि ववहारु ।।
अर्थ - हे योगी! वास्तविकरूप में जिसके न ही (संसार के कारण, प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशरूप) बन्ध है, न ही (द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावरूप) संसार है, वह परम-आत्मा है। तुम मन से (सब लौकिक व्यवहार) विवाद त्यागकर (वीतरागता में स्थित होकर) यह समझो।
शब्दार्थ - जसु -जिसके, परमत्थे ँ - वास्तविकरूप म,ें बंधु -बंध, ण -न, वि-ही, जोइय-हे योगी!, ण-न, वि-ही, संसारु-संसार, सो -वह, परमप्पउ -परम आत्मा, जाणि- समझो, तुहुँ-तुम, मणि-मन में, मिल्लिवि -त्यागकर, ववहारु-विवाद को
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