आत्मा के ज्ञान गुण का कथन
परमात्मप्रकाश के क्रमशः आगे के दोहे में आत्मा के ज्ञान गुण की बहुत रोचक अभिव्यक्ति हुई है। इसमें बताया गया है कि आत्मा में ज्ञान गुण होने पर ही आत्मा के ज्ञान में संसार झलकता है, तथा इस ज्ञान गुण के कारण ही वह अपने आपको संसार के भीतर रहता अनुभव करता है। जब वह इस ज्ञान गुण के कारण कर्म बंधन से रहित हो संसार में बसता हुआ भी संसाररूप नहीं होता तब वह ही परम आत्मा होता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा-
41 जसु अब्भंतरि जगु वसइ जग-अब्भंतरि जो जि ।
जगि जि वसंतु वि जगु जि ण वि मुणि परमप्पउ सो जि ।।
अर्थ - जिसके (ज्ञान के) भीतर संसार बसता (प्रतिबिम्बित होता) है (और) भी जो संसार के भीतर (ज्ञानरूप से) (व्याप्त है)। इस प्रकार वह संसार में वास करता हुआ भी निश्चय ही संसाररूप नहीं है, वह ही परम- आत्मा है, (ऐसा तू) समझ।
शब्दार्थ - जसु - जिसके, अब्भंतरि-भीतर में, जगु -संसार, वसइ-बसता है, जग-अब्भंतरि - जग के भीतर, जो-जो, जि-भी, जगि-संसार में, जि-इस प्रकार, वसंतु-बसता हुआ, वि-भी, जगु-संसाररूप, जि-निश्चय ही, ण वि-नहीं, मुणि-समझ, परमप्पउ-परम-आत्मा, सो-वह, जि -ही।
0 Comments
Recommended Comments
There are no comments to display.