परम आत्मा की अनुभूति के लिए परम समाधि व तप आवश्यक
परमात्मप्रकाश के दोहे 42 में बताया गया है कि परम समाधि का अनुभव सांसारिक भोगों के प्रति आसक्ति के त्याग से ही संभव है। भोगों के साथ परम आत्मा की अनुभूति की बात करना चट्टान पर कमल उगाना तथा पानी से मक्खन निकालने के समान है। सभी महापुरुषों ने परमात्मा की अनुभूति भोगों से विरक्त होकर परमसमाधि व तप करके ही की है।
42. देहि वसंतु वि हरि-हर वि जं अज्ज वि ण मुणंति ।
परम-समाहि-तवेण विणु सो परमप्पु भणंति ।।
अर्थ - हरि, हर, (अरिहन्त जैसे महापुरुष) भी देह में बसता हुआ भी जिस (आत्मा) को परम समाधि व तप के बिना आज भी नहीं जान सकते हैं, वह परम- आत्मा (है), (ज्ञानीजन) (ऐसा) कहते हैं।
शब्दार्थ - देहि-देह में, वसंतु-बसता हुआ, वि-भी, हरि-हर- हरि, हर, वि-भी, जं-जिसको, अज्ज-आज, वि-भी, ण-नहीं, मुणंति-जानते हैं, परम-समाहि-तवेण- परम समाधि व तप के, विणु-बिना, सो-वह, परमप्पु - परम आत्मा, भणंति-कहते हैं।
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