कर्म बंधन से मुक्त परम आत्मा का स्वरूप
आचार्य योगीन्द्र कहते हैं मात्र कर्म ही जीव के सुख-दुःख का कारण है। कर्म बंधन से मुक्त हुआ जीव ही सुख दुःख से परे शान्त अवस्था को प्राप्त हुआ परम आत्मा होता है। परम आत्मा से न कुछ उत्पन्न होता है और ना ही उसका कुछ हरण किया जाता है। आत्मा कर्मरूप होकर भी कर्मों से बंधी हुई नहीं होती। देखिये इस कथन को परमात्मप्रकाश के दो दोहे में इस प्रकार बताया गया है -
48. कम्मइं जासु जणंतहि ँ वि णिउ णिउ कज्जु सया वि ।
किं पि ण जणियउ हरिउ णवि सो परमप्पउ भावि ।।
अर्थ - निश्चयरूप से कर्म ही हमेशा जिसके अपने-अपने (सुख-दुःखादि) कार्य को उत्पन्न करते हैं। (किन्तु ) (जो) (किसी के द्वारा) न कुछ भी उत्पन्न की गई और न ही हरण की गयी (है), वह ही परम- आत्मा है, (तुम इस प्रकार ) चिन्तन करो।
शब्दार्थ - कम्मइं- कर्म, जासु-जिसके, जणंतहि ँ -उत्पन्न करते हैं, वि-ही, णिउ णिउ -अपने-अपने कज्जु -कार्य को,सया वि-हमेशा,किं पि-कुछ भी, ण -न,जणियउ-उत्पन्न की गयी, हरिउ-हरण की गयी, णवि-ना ही, सो-वह, परमप्पउ -परम आत्मा, भावि-चिन्तन कर ।
49. कम्म-णिबद्धु वि होइ णवि जो फुडु कम्मु कया वि ।
कम्मु वि जो ण कया वि फुडु सो परमप्पउ भावि ।।
अर्थ - जो (आत्मा) आत्मा कर्मरूप होकर भी कर्मों से निश्चितरूप से बँंधी हुई नहीं होती (तथा) जो कर्म भी निश्चितरूप से कभी भी (उस आत्मा के) नहीं (होते) (ऐसी) वह परम- आत्मा है, (तुम इस प्रकार) चिन्तन करो।
यहाँ तक परमात्मप्रकाश के 49 दोहों में आत्मा के परमात्म स्वरूप का कथन पूर्ण हुआ । आगे भट्टप्रभाकर के प्रश्न के साथ पुनः आत्मा के स्वरूप के विषय में हम देखेंगे।
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