सभी जीवों का प्राण कर्म
भारतीय संस्कृति अध्यात्म प्रधान संस्कृति है। भारत देश में विद्यमान सभी धर्मों के धर्माचार्यों ने सभी जीवों का प्राण कर्म को ही अंगीकार किया है। गीता, महाभारत, रामायण, समयसार, आचारंग बाइबिल, कुरान कोई भी ग्रंथ किसी भी धर्माचार्य द्वारा विरचित हो सभी कर्म को प्रमुखता देते हैं। कर्म को प्रमुखता देकर उसको अंगीकार करनेवाला कोई भी प्राणी धर्मान्धता को मान्यता नहीं देता। वह किसी भी भी झूठे चमत्कार में विश्वास नहीं करता, अपितु धर्मान्धों के चमत्कार में भी वह सच्चाई को ढूंढ निकालता है। किसी भी धर्माचार्य द्वारा रचित कोई भी ग्रंथ ऐसा नहीं जो कर्म की बात करने से विमुख हो। सभी धर्माचार्यों ने अपने ग्रंथों में सत्कर्म करने का ही उपदेश दिया है, तथा सत्कर्म को ही उसके सुख का आधार घोषित किया है। प्रस्तुत परमात्मप्रकाश ग्रंथ में भी दिगम्बर जैन आचार्य योगिन्दु ने कर्म के विषय में कहा है कि प्राणी के धर्म और अधर्म का कारण यह कर्म ही है। देखिये इससे सम्बन्धित परमात्मप्रकाश का क्रमशः 60 दोहा -
60. एहु ववहारे ँ जीवउउ हेउ लहेविणु कम्मु ।
बहुविह-भावे ँ परिणवइ तेण जि धम्मु- अहम्मु।। 60।।
अर्थ -यह जीव कर्म (रूप) कारण को प्राप्तकर अनेक प्रकार के भाव से रूपान्तर को प्राप्त होता है, उससे ही धर्म और अधर्म होता है।
शब्दार्थ - एहु - यह, ववहारे ँ- व्यवहार से, जीवउउ-जीव, हेउ-कारण को, लहेविणु-प्राप्त कर, कम्मु-कर्म, बहुविह-भावे ँ-अनेक प्रकार के भाव से, परिणवइ - रूपान्तर को प्राप्त होता है, तेण-उससे, जि-ही, धम्मु- अहम्मु- धर्म और अधर्म।
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