आत्मा और कर्म का परष्पर सम्बन्ध
कर्म सिद्धान्त जैन धर्म एवं दर्शन की रीढ़ है। आचार्य योगीन्दु परमआत्मा का स्वरूप, आत्मा का लक्षण आदि को स्पष्ट करने के बाद आत्मा व कर्म में परस्पर सम्बन्ध का कथन परमात्मप्रकाश में 59.66 दोहों में करते हैं। वे कहते हैं कि जीवों का कर्म अनादिकाल से चला आ रहा है, इन दोनों का ही आदि नहीं है। यह जीव कर्म के कारण ही अनेक रूपान्तरों को प्राप्त होता है। आत्मा के साथ कर्म के सम्बन्ध को हम एक-एक दोहे के माध्यम से देखने और समझने का प्रयास करते हैं -
59. जीवहँ कम्मु अणाइ जिय जणियउ कम्मु ण तेण।
कम्मे ँ जीउ वि जणिउ णवि दोहि ँ वि आइ ण जेण ।। 59।।
अर्थ - हे जीव! जीवों का कर्म अनादिकाल से चला आता हुआ है, उस जीव के द्वारा कर्म उत्पन्न नहीं किया गया, कर्म के द्वारा भी यह जीव उत्पन्न नहीं किया गया, जिससे इन दोनों का ही आदि नहीं है।
शब्दार्थ - जीवहँ - जीवों का, कम्मु - कर्म, अणाइ - अनादिकाल से चला आता हुआ, जिय- हे जीव, जणियउ - उत्पन्न किया गया, कम्मु - कर्म, ण - नहीं, तेण - उसके द्वारा, कम्मे ँ -कर्म के द्वारा, जीउ - जीव, वि -भी, जणिउ - उत्पन्न किया गया, णवि - नहीं, दोहि ँ-दोनों का, वि - ही, आइ - आदि, ण-नहीं, जेण - जिससे।
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