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चरणों में प्रणामांजलि - अमृत माँ जिनवाणी से - १२७


Abhishek Jain

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?   अमृत माँ जिनवाणी से - १२७   ?


               "चरणों में प्रणामांजलि"


                 विमानस्थित आचार्य परमेष्ठी के द्रव्य मंगल रूप शरीर के पास पहुँच चरणों को स्पर्श कर मैंने प्रणाम किया। चरण की लम्बी गज रेखा स्पष्ट दृष्टिगोचर हुई। मुझे अन्य लोगों के साथ विमान को कन्धा देने का प्रथम अवसर मिला।

   ?ॐ सिद्धाय नमः की उच्च ध्वनि?


           धर्म सूर्य के अस्तंगत होने से व्यथित भव्य समुदाय ॐ सिद्धाय नमः, ॐ सिद्धाय नमः का उच्च स्वर में उच्चारण करता हुआ विमान के साथ बढ़ता जा रहा था। थोड़ी देर में विमान, क्षेत्र के बाहर बनी हुई पाण्डुक शिला के पास लाया गया। पश्चात् पावन पर्वत की प्रदक्षिणा देता हुआ विमान पर्वत पर लाया गया।

        महाराज का शरीर जब देखो ध्यान मुद्रा में ही लीन दिखता था। दो बजे दिन के समय पर्वत पर मानस्तम्भ के समीपवर्ती स्थान पर विमान रखा गया। वहाँ शास्त्रानुसार शरीर के अंतिम संस्कार, लगभग १५ हजार जनता के समक्ष कोल्हापुर जैन मठ के भट्टारक श्री लक्ष्मीसेन स्वामी ने कराया।

                ?प्रदीप्त अग्नि?

   
            अभिषेक होते ही चन्दन, नारियल की गारी, कपूर आदि द्रव्यों से पद्मासन बैठे हुए उस शरीर को ढांकने का कार्य शुरू हुआ। देखते-देखते आचार्यश्री का मुखमंडल भर जो दृष्टीगोचर होता था, कुछ क्षण बाद वह भी दाह-द्रव्य में दब गया। विशेष मन्त्र से परिशुद्धि की गई। 

              अग्नि के द्वारा शरीर का चार बजे शाम को दाहसंस्कार प्रारम्भ हुआ। कपूर आदि सामग्री को पाकर अग्नि को वृद्धिंगत होते देर न लगी। अग्नि की बड़ी-बड़ी ज्वालाएँ पवन का सहयोग पाकर चारों दिशाओं में फैलकर दिग्दिगंत को पवित्र बना रही थी। देह दाह का संस्कार हो गया।

         ?हमे भी समाधि लाभ हो?

               उसे देखकर ज्ञानी जन सोचते थे। हे सधुराज ! जैसी आपकी सफल संयम पूर्ण जीवन यात्रा हुई है। श्रेष्ठ स्माधि रूपी अमृत आपने प्राप्त किया ऐसा ही जिनेन्द्र देव के प्रसाद से हमे भी हो और अपना जन्म कृतार्थ करने का अवसर प्राप्त हो।


? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?

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