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?कथा द्वारा शिक्षा - अमृत माँ जिनवाणी से - १४७


Abhishek Jain

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☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,

         प्रस्तुत प्रसंग में पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी द्वारा, जीवन में अधिक विनोद के परिणाम को बताने के लिए कथानक बताया है।

   यह प्रसंग हम सभी गृहस्थों के जीवन के लिए बहुत उपयोगी है।

?    अमृत माँ जिनवाणी से - १४७    ?


               "कथा द्वारा शिक्षा"


             पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने बड़वानी की तरफ विहार किया था। संघ के साथ में तीन धनिक गुरुभक्त तरुण भी थे। वे बहुत विनोदशील थे। उनका हासपरिहास का कार्यक्रम सदा चलता था। उन तीनों को विनोद में विशेष तत्पर देखकर आचार्यश्री ने एक शिक्षाप्रद कथा कही:

   "एक बड़ी नदी थी। उसमें नाव चलती थी। उस नौका में एक ऊँट सवार हो गया। एक तमाशे वाले का बन्दर भी उसमें बैठा था। इतने में एक बनिया अपने पुत्र सहित नाव में बैठने को आया। चतुर धीवर ने कहा- "इस समय नौका में तुम्हारे लड़के को स्थान नहीं दे सकते। वह बालक उपद्रव कर बैठेगा, तो गड़बड़ी हो जाएगी।"

         चालक व्यापारी ने मल्हार को समझा-बुझाकर नाव में स्थान जमा ही लिया। पैसा क्या नहीं करता। नौका चलने लगी। थोड़े देर के बाद बालक का विनोदी मन नहीं माना। बालक तो बालक ही था। उसने बन्दर को एक लकड़ी से छेड़ दिया।

      चंचल बन्दर उछला और ऊँठ की गर्दन पर चढ़ गया। ऊँठ घबरा उठा। ऊँठ के घबड़ाने से नौका उलट पडी और सबके सब नदी में गिर पड़े।

       ऐसी ही दशा बिना विचारकर प्रवृत्ति करने वालों की होती है। बच्चे के विनोद ने संकट उत्पन्न कर दिया। इसी प्रकार यदि अधिक गप्पों में और विनोद में लगोगे, तो उक्त कथा के समान कष्ट होगा। गुरुदेव का भाव यह था, कि जीवन को विनोद में ही व्यतीत मत करो। जीवन का लक्ष्य उच्च और उज्जवल कार्य करना है।"


?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?

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