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परलोक यात्रा के पूर्व - अमृत माँ जिनवाणी से - १२२


Abhishek Jain

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?   अमृत माँ जिनवाणी से - १२२  ?


               "परलोक यात्रा के पूर्व"


                 आज का प्रसंग पिछले प्रसंग के आगे का ही कथन है। उससे जोड़कर ही आगे पढ़ें।

               मुझे (लेखक को) आशा नहीं थी कि अब पर्वत पर गुरुदेव के पास पहुँचने का सौभाग्य मिलेगा। मै तो किसी-किसी भाई से कहता था, "गुरुदेव तो ह्रदय में विराजमान हैं, वे सदा विराजमान रहेंगे। उनके भौतिक शरीर के दर्शन न हुए, तो क्या? मेरे मनोमंदिर में तो उनके चरण सदा विद्यमान  हैं। उनका दर्शन तो सर्वदा हुआ ही करेगा।"

         कुछ समय के पश्चात् मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि एक व्यक्ति मेरे पास आया और उसने कहा कि पर्वत पर आपको बुलाया है।

           मै पर्वत पर लगभग तीन बजे पहुँचा और महाराज की कुटी में गया। वहाँ मुझे उन क्षपकराज के अत्यंत निकट लगभग दो घंटे रहने का अपूर्व अवसर मिला। वे चुपचाप लेते थे, कभी-कभी हांथों का सञ्चालन हो जाता था। अखंड सन्नाटा कुटी में रहता था। महाराज की श्रेष्ठ समाधि निर्विध्न हो, इस उद्देश्य से मैं भगवान का जाप करता हुआ तेजःपुंज शरीर को देखता था।


?३४ वाँ दिन -   १६ सितम्बर १९५५ ?


               आज सल्लेखना का ३४ वाँ दिन था। जल ग्रहण ना करने का आज १२ वाँ दिन था। शरीर की हालात बहुत नाजुक थी, फिर भी गुफा में आत्मध्यान में समय व्यतीत किया।

? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?

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