भट्टारक जिनसेन स्वामी का स्वप्न - अमृत माँ जिनवाणी से - १३०
? अमृत माँ जिनवाणी से - १३० ?
"भट्टारक जिनसेन स्वामी का स्वप्न"
कोल्हापुर के भट्टारक जिनसेनजी को ७ जुलाई १९५३ में स्वप्न आया था कि आचार्य शान्तिसागर जी महाराज तीसरे भव में तीर्थंकर होंगे। भट्टारक महाराज की बात को सुनकर आचार्य महाराज ने भी कहा कि: "१२ वर्ष पूर्व हमे भी ऐसा स्वप्न आया था कि तुम पुष्करार्ध द्वीप में तीर्थंकर पद धारण करोगे।"
कभी-कभी अयोग्य, अपात्र, प्रमादी, विषयाशक्त व्यक्ति भी स्वयं तीर्थंकर होने की कल्पना कर बैठते हैं, किन्तु उनका स्वयं का जीवन आचरण तथा श्रद्धा सूचित करते हैं कि वह प्रलाप मात्र है। रत्नत्रय के द्वारा पुनीत जीवन वाले श्रमणराज का श्रेष्ठ विकास पूर्णतः सुसंगत लगता है। महाराज में सोलहकारण भावनाओं का अपूर्व समागम था। जिनसे तीर्थंकर रूप श्रेष्ठ फल मिलता है।
यह शंका की जा सकती है कि केवली, श्रुतकेवली के चरण-मूल में तीर्थंकर प्रकृति का बंध प्रारम्भ होता है, तब आज उक्त दोनों विभूतियों के अभाव में किस प्रकार तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो सकेगा?
यथार्थ में शंका उचित है किन्तु इस भव में तीर्थंकर प्रकृति का बंध ना करके, लौकान्तिक पदवी को छोड़कर पुनः नर पदवी धारण करके तो तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो सकता है। विदेह में तीर्थंकर पंचकल्याणक वाले होते हैं; दीक्षा, ज्ञान तथा मोक्ष तीन कल्याणक वाले भी होते हैं, ज्ञान और मोक्ष दो कल्याणक वाले भी होते हैं।
गृहस्थावस्था में यदि तीर्थंकर प्रकृति का बंध किसी चरम शरीरी आत्मा ने किया तो उसके तीन कल्याणक होंगे। यदि निर्ग्रन्थ ने बंध किया, तो ज्ञान और मोक्ष रूप दो ही कल्याणक हो सकेंगे। इस अपेक्षा से सोचा जाए, तो वे सभी भाग्यशाली हो जाते हैं, जिन्होंने ऐसी प्रवर्धमान पुण्यशाली आत्मा के दर्शनादि का लाभ लिया हो। सबसे बड़ा भाग्य तो उनका है जो पूज्य शान्तिसागरजी महाराज के उपदेशानुसार पुण्य जीवन व्यतीत करते हुए जन्म को सफल कर रहे हैं।
? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
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