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Abhishek Jain

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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

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Blog Entries posted by Abhishek Jain

  1. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - ८७     ?
                  "पतित का उद्धारकार्य"

                  आचार्यश्री अनंतकीर्ति महाराज ने एक घटना का जिक्र किया कि एक बार आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज कुंभोज पहुँचे। 
                एक व्यक्ति धर्ममार्ग से डिग चुका था। उसके सुधार के आचार्य महाराज के भाव उत्पन्न हुए। महाराज ने उस व्यक्ति को अपने पास बुलाने का विचार किया। उस पर चंद्रसागर महाराज ने कहा- "महाराज ! वह दुष्ट है। बुलाने पर वह नहीं आएगा, तो आपका अपमान होगा।"
                  आचार्य महाराज ने कहा- "हमारे पास मान नहीं है, तो अपमान कैसे होगा?" मान होने पर अपमान का भय उचित था। 
                 इसके पश्चात् वह व्यक्ति महाराज के पास आया। उनके तपोमय व्यक्तित्व ने उस पापी ह्रदय पर गहरा प्रभाव डाला। महाराज के कथन को सुनकर उसने अपने जीवन में समुचित सुधार कर लिया।"
            
    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  2. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - ८५      ?

                     "डाकू का कल्याण"

                       १९ जनवरी १९५६ को १०८ मुनि विमलसागर महाराज शिखरजी जाते हुए फलटण चातुर्मास के उपरांत सिवनी पधारे थे। उन्होंने बताया था कि -
               आचार्यश्री शान्तिसागर महाराज आगरा के समीप पहुँचे। वहाँ जैन मंदिर में उनके पास एक डाकू रामसिंह पुरवाल वेष बदलकर गया। महाराज के पवित्र जीवन ने उस डाकू के ह्रदय में परिवर्तन कर दिया। उसने महाराज से अपनी कथा कहकर क्षमा याचना की तथा उपदेश माँगा।
                       महाराज ने उससे कहा- "तुम णमोकार मंत्र को जपो।" णमोकार मंत्र जपते ही उस डाकू के तत्काल प्राणपखेरू उड़ गए। जीवन कितना क्षणिक है। क्षण भर में उसका कल्याण हो गया।
                    आचार्य विमलसागरजी महाराज ने कहा था- "स्व. आचार्य महाराज आगरा की तरफ पधारे थे। उनकी कृपा से हमें यज्ञोपवीत प्राप्त हुआ था, जो रत्नात्रय का लिंग है। उस रत्नात्रय के चिन्ह के निमित्त से आज मुझे निर्ग्रथ पदवी प्राप्त करने का सौभाग्य मिला। उनके संपर्क से परिणामों में अपूर्व उत्साह उत्पन्न होता था। आत्मकल्याण की ओर भाव बढ़ते थे।"

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रथ का  ?
  3. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - ८४     ?

                 "रसना इन्द्रिय का जय"

                    नसलापुर चातुर्मास में यह चर्चा चली कि- "महाराज ! आप दूध, चावल तथा जल मात्र क्यों लेते हैं? क्या अन्य पदार्थ ग्रहण करने योग्य नहीं हैं।"
                      महाराज ने कहा- "तुम आहार में जो वस्तु देते हो, वह हम ले लेते हैं। तुम अन्य पदार्थ नहीं देते, अतः हमारे न लेने की बात ही नहीं उत्पन्न होती है।"
                     दूसरे दिन महाराज चर्या को निकले। दाल, रोटी, शाक आदि सामग्री उनको अर्पण की जाने लगी, तब महाराज ने अंजलि बंद कर ली। आहार के पश्चात् महाराज से निवेदन किया गया- "स्वामिन् ! आज भी आपने पूर्ववत आहार लिया। रोटी आदि नहीं ली। इसका क्या कारण है?"
                       महाराज ने पूंछा- "तुमने आटा कब पीसा था, कैसे पीसा था?" इस प्रश्न के उत्तर में यह बताया गया कि रात को आटा पीसा था आदि। तब महाराज ने कहा- "ऐसा आहार मुनि को नहीं लेना चाहिए।"
                         इसके बाद तीसरे दिन फिर पूर्ववत ही महाराज ने आहार लिया। आहार के पश्चात् महाराज ने भोजन की अनेक त्रुटियाँ बताई। भक्ष्य-अभक्ष्य के विषय में पूर्ण निर्णय होने में पंद्रह दिन का समय व्यतीत हो गया। इसके बाद महाराज ने अन्य शुद्ध भोज्य वस्तुओं का लेना प्रारम्भ किया। 
                     केवल दूध, चावल, जल लेते लेते लगभग आठ दस वर्ष का समय व्यतीत हो गया था।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  4. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - ८३     ?
        "मिट्टी के बर्तन पर नारियल का नियम"

                          आचार्य महाराज ने कोन्नूर में वृत्ति परिसंख्यान तप प्रारम्भ किया था। उनकी प्रतिज्ञा के अनुसार योग न मिलने से महाराज के छह उपवास हो गये। समाज के व्यक्ति सतत चिंतित रहते थे, जिस प्रकार आदिनाथ भगवान को आहार न मिलने पर उस समय का भक्त समाज चिंतातुर रहा था। सातवें दिन लाभांतराय का विशेष क्षयोपशम होने से एक गरीब गृहस्थ भीमप्पा के यहाँ गुरुदेव को अनुकूलता प्राप्त हो गई।
                         महाराज का नियम था कि यदि मिट्टी के बर्तन पर नारियल रखकर कोई पड़गाहेगा, तो मै आहार लूँगा। गरीब भीमप्पा की दरिद्रता वरदान बन गई। उस बेचारे ने निर्धनतावश मिट्टी का कलश लेकर पड़गाहा और उसने महाराज को आहार देने का उज्जवल सुयोग प्राप्त किया।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  5. Abhishek Jain
    ☀इस प्रसंग कोई पढ़कर आपको आचार्यश्री की प्रतिभा व् धर्म प्रभावना की जानकारी मिलेगी साथ ही वर्तमान में हम सभी को भी धर्म के सम्बन्ध में परिस्थिति वश कैसे विवेक रखना चाहिए यह सीखने मिलेगा।
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - ८२     ?

               "प्रतिभा द्वारा प्रभावना"

                         एक बार आचार्य महाराज हुबली पहुँचे। वहाँ अन्य संप्रदाय के साधु विद्यमान थे। उनके संघनायक सिद्धारूढ़ स्वामी लिंगायत साधु महान विद्वान् थे। आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज की सर्वत्र श्रेष्ठ साधु के रूप में कीर्ति का प्रसार हो रहा था, इसलिए वे पालकी में आरूढ़ होकर अपने शिष्य समुदाय के साथ आचार्य महाराज के निकट आकर बैठ गए।
                          अपने संप्रदाय के विशेष अहंकारवश उन्होंने जैन गुरु को प्रणाम करना अपनी श्रद्धा के प्रतिकूल समझा था। आचार्य महाराज की इस विषय में उपेक्षा दृष्टि रहती थी, कारण की प्रणाम करने या ना करने से उनकी ना कोई हानि होती थी और न लाभ भी होता था।
                          उस समय नेमिसागरजी शास्त्र पढ़ रहे थे। सम्यकत्व तथा मिथ्यात्व का प्रकरण चल रहा था। कुछ समय तक लिंगायत स्वामी ने शास्त्र सुना और प्रश्न किया, "बार-बार सम्यक्त्व तथा मिथ्यात्व का शब्द सुनने में आ रहा है। सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का क्या भाव है?"
                        महा मिथ्यात्व के रोग में ग्रस्त व्यक्ति को कैसे सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का भेद समझाया जावे ? उत्तर देना सामान्य बात नहीं थी। उत्तर तो कोई भी दे सकता था, किन्तु उत्तर ऐसा आवश्यक था, जो ह्रदय को समाधानप्रद हो तथा जिससे कटुता उत्पन्न न हो।
                         आचार्य महाराज की प्रतिभा ने एक सुन्दर समाधान सोचा। उन्होंने ये अनमोल शब्द कहे- "भीतर देखना सम्यक्त्व है। बाहर देखना मिथ्यात्व है।" महाराज ने कन्नडी भाषा में ये वाक्य कहे थे। इसे सुनते ही उसका ह्रदय कमल खिल गया। उस ज्ञानवान साधू को अवणनीय आनंद आया।
                    उन्होंने आचार्य महाराज को साष्टांग प्रणाम किया और कहा- "ऐसे सद्गुरु का मुझे अपने जीवन में प्रथम बार दर्शन हुआ। ऐसे महापुरुष को ही अपना गुरु बनाना चाहिए।"
        उनके सभी शिष्यों ने महाराज को प्रणाम किया।
                        हजारों व्यक्तियों के मुख से जैन गुरु के गौरव और स्तुति के वाक्य निकले थे। उस समय बड़ी प्रभावना हुई थी। लाखों लोग कहते थे, सच्चा साधुपना तो शांतिसागर महाराज में हैं।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  6. Abhishek Jain
    ☀इस प्रसंग को सभी अवश्य ही पढ़ें।
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - ८१     ?

             "शिष्य को गुरुत्व की प्राप्ति"
          
                    पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरज़ी महराज का संस्मरण बताते हुए पूज्य मुनिश्री १०८ आदिसागरजी महाराज ने बताया कि-
                         
              आचार्य शान्तिसागरजी महाराज ने (मुनि देवेन्द्रकीर्ति महाराज) से क्षुल्लक दीक्षा ली थी। देवप्पास्वामी सन् १९२५ में श्रवणबेलगोला में थे, उस समय महाराज भी वहाँ पहुंचे।
                      देवप्पा स्वामी ने वहाँ महाराज का शास्त्रोक्त जीवन देखा और जब उससे उन्होंने अपनी शिथिलाचार पूर्ण प्रव्रत्ति की तुलना की, तब उनको ज्ञात हुआ कि मेरी प्रव्रत्ति मुनि पदवी के अनुकूल नहीं है।
                    देवप्पा स्वामी दस गज लंबा वस्त्र ओढ़ते थे। उद्दिष्ट स्थान पर जाकर आहार लेते थे। आहार के समय वे दिगंबर होते थे। भोजन के समय जोर से घण्टा बजता था, ताकि भोजन में अंतराय रूप वाक्य करणेंद्रिय गोचर ही ना हों। ऐसी अनेक बातें थी। देवप्पा स्वामी सच्चे मुमुक्षु थे। विषयों से विरक्त थे। उनको सम्यक प्रणाली का पता ना था।
                       उन्होंने आचार्य महाराज से कहा- "मुझे छेदोपस्थापना दीजिये। आगम के अनुसार मेरा कल्याण कीजिए। आपके शास्त्रोक्त जीवन से मेरी आत्मा प्रभावित हो उठी है।"
                         आचार्य महाराज को उनको यथायोग्य प्रश्चित्यपूर्वक पुनः दीक्षा दी। उनके गुरु ने भी गुरुत्व का त्याग कर शिष्य पदवी स्वीकार की। सत्पुरुष आत्महित को ही सर्वोपरि मानते हैं।
                         आचार्य महाराज को अपने गुरु के सम्बन्ध की यह चर्चा करना अच्छा नहीं लगता था।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  7. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - ७९     ?

                          "आकर्षण"
           
                         २४ नवम्बर, १९५५ में लेखक दिवाकरजी पूज्य मुनिश्री १०८ धर्मसागर जी महाराज के समीप गए। उस समय वह जबलपुर के समीप बरगी में विराजमान थे।
                        पूज्य १०८ धर्मसागरजी महाराज ने आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज का संस्मरण सुनाते हुए कहा था- "मै उस समय छोटा था। मैंने महाराज के यरनाल में दर्शन किये थे। वे ऐलक थे। यरनाल में उनकी मुनि दीक्षा हुई थी। बाद में महाराज का कोन्नूर में चातुर्मास हुआ था। वह स्थान हमारे गाँव पाच्छापुर से दस मील पर था। 
                     रविवार को हमारे स्कूल की छुट्टी रहती थी। उस दिन हम दस मील दौड़ते हुए महाराज के पास कोन्नूर जाया करते थे। उनके दर्शन के उपरांत शाम को लौटकर घर वापिस आते थे। महाराज के जीवन का आकर्षण इतना था कि उस समय बीस मील आना जाना कष्टप्रद नहीं लगता था।"

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  8. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - ७८     ?

                     "शरीर नौकर है"
           
                 मुनिश्री वर्धमान सागर जी महाराज ने अपने संस्मरण में आचार्यश्री शान्तिसागर जी महाराज के बारे में बताया कि -
              "उनकी दृष्टि थी कि यह शरीर नौकर है। नौकर को भोजन दो और काम लो। आत्मा को अमृत-पान कराओ।"
                   भादों सुदी त्रयोदशी को महाराज ने समयसार प्रवचन में कहा था- "द्रव्यानुयोग के अभ्यास के लिए प्रथमानुयोग सहायक होता है। उसके अभ्यास से द्रव्यानुयोग कठिन नहीं पड़ता।" 
                वास्तव में प्रथमानुयोग से आध्यात्म रस का पान करने वाली महनीय समर्थ तथा त्यागी विभूतियों का जीवन वृत्त ज्ञात होता है, जैसे पांडव पुराण में आत्म निमग्न युधिष्ठिर आदि की दृढ़ता अवगत होती है।

    ?  स्वाध्याय चरित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  9. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - ७७     ?

                     "शक्ति की परीक्षा"

                   आचार्य शान्तिसागरजी महाराज के गृहस्थ जीवन के बड़े भाई पूज्य वर्धमानसागरजी महाराज ने उनके पूर्व समय का एक प्रसंग बताया-
                   "एक बढ़ई ने भोज में आकर शक्ति परीक्षण हेतु एक लंबा खूंटा गाड़ा था। वह गाँव में किसी से ना उखड़ा, उसे नागपंचमी के दिन महाराज ने जरा ही देर में उखाड़ दिया था और चुप चाप घर आ गए थे। 
                 जब खूंटा उन्होंने उखाड़ा तब मैंने कहा था- "ऐसा काम नहीं करना। चोट आ गई तो?"
                   जनता द्वारा सम्मानार्थ निकाले जलूस में वे नहीं गए थे, कारण कि उन्हें कीर्ति नहीं चाहिए थी। वे जन्मजात विरक्त महापुरुष थे। उनका मेरे प्रति प्रेम था। कुंमगोड़ा(छोटा भाई) पर भी प्रेम था।

    ?  स्वाध्याय चरित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  
  10. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - ७६     ?

        "आचार्यश्री के घरेलु जीवन के संस्मरण"

                      आचार्यश्री शान्तिसागरजी के गृहस्थ जीवन के बड़े भाई वर्धमान सागरजी महाराज ने आचार्य महाराज के बारे में इस प्रकार संस्मरण बतलाये थे:
                 "मैंने उसे गोद में खिलाया, गाड़ी में खिलाया। वह हमारे साथ-साथ खेलता था। बहुत शांत था। रोता नहीं था। मैंने उसे रोते कभी नहीं देखा, न बचपन में और न बड़े होने पर। उसे कपडे बहुत अच्छे पहिनाय जाते थे। सब लोग उसे अपने यहाँ ले जाया करते थे। हमारा घर बड़ा संपन्न था।"
                  "एक बार कुमगोंडा( छोटा भाई ) पानी में बह गया था, तब सब काम छोड़ महाराज ने पानी में घुस कर उसे बचाया था। कुमगोंडा की रक्षार्थ चौथी कक्षा के बाद इन्होंने पढ़ाई बंद कर दी थी।"
                       "इनकी शादी की बात आती थी, तब कहते थे कि 'मी लग्न करणार नाहीं'" (मै विवाह नहीं करूँगा), कारण की शास्त्रों में लिखा है, संसार खोटा है।' यह बात सुन हमारे माता पिता के आँसू आ गए। माता-पिता बड़े धर्मात्मा थे, इसलिए मन ही मन बहुत प्रसन्न हुए।"
              "शरीर-बल में कोल्हापुर जिले में उनकी जोड़ का कोई नहीं था। इस पर जब उनको चाँदी के कड़े इनाम देने लगे, तो इन्होंने लेने से इन्कार कर दिया था। "

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  11. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - ७५     ?

          "ओरसा ग्राम में दंश-मशक परिषय"

                     आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज का संघ सिद्ध क्षेत्र कुण्डलपुर के दर्शन के उपरांत दमोह आया, वहाँ दर्शन के उपरांत, वह ओरसा ग्राम गया। वहाँ एक विशिष्ट घटना हो गई।
                       आचार्य महाराज को वहाँ कष्ट ना हो, इसलिए दमोह के सेठजी ने घर को साफ कराया था। महाराज के आने पर उन्होंने कहा, "महाराज, "यह घर आपके लिए ही हमने साफ करवाया है।"
                        विशेषकर अपने निमित्त से उद्दिष्ट किये गए घर में ठहरने पर गृहस्थ द्वारा किये गए सावध कर्म का दोष इन सर्वसावध त्यागी मुनिराज पर आएगा। इससे महाराज ने उस घर को अपने ठहरने के लिए अनुपयुक्त समझा, अतएव वे रात भर बाहर की जगह में ही ठहरे। दिगंबर शरीर पर डांस मच्छरों की बाधा का अनुमान किया जा सकता है।
                    जब एक मच्छर भी अपने दंश प्रहार और भनभनाहट से हमारी नीद में बाधा पहुँचा सकता है, तब अगणित डांस और मच्छर दिगंबर शरीर को कितना न त्रास देते होंगे?
                   महाराज ने उस उपद्रव को साम्य भाव से सहन किया। यह दिगंबर मुनिश्री की श्रेष्ठ चर्या है। इसमें जरा भी शिथिलाचरण को स्थान नहीं है। यही कारण है कि सिंहवृत्ति को धारण करने में जगत के बड़े-२ वीर डरते हैं।
                       महावीर प्रभु के चरणों का असाधारण प्रसाद जिन महामानवों को प्राप्त हुआ है, वे ही ऐंसे कठोर व् भीषण कष्ट संकुल श्रमण जीवन को कर्म निर्जरा का अपूर्व कारण मान सहर्ष स्वीकार करते हैं।
                    वे अपने हाथ से मच्छरों, डासो को भागाते भी नहीं हैं, ऐसा करने से उनकी हिंसा होती है, अतयव वे डांस शरीर का खून चूसते रहे, और ये निर्विकार भाव से इस कष्ट को सहन करते रहे, मानो यह शरीर उनका ना हो।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  12. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - ७१     ?

    "बिलहरी में चर्मकारों द्वारा माँसाहार त्याग"

                     सन् १९२८ में शिखरजी की वंदना के उपरांत आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के पावन चातुर्मास का सौभाग्य मिला कटनी (म.प्र) वासियों को। कटनी चातुर्मास के उपरांत महाराज ने वहाँ से अगहन कृष्णा एकम को बिहार किया। दूसरे दिन आचार्यश्री बिलहरी ग्राम पहुँचे। वहाँ संघ का दो दिन वास्तव्य रहा।
                       आचार्य महाराज के श्रेष्ट आध्यात्मिक जीवन की प्रसद्धि हो चुकी थी। अतः उस ग्राम में सरकारी अधिकारीयों ने और जनता ने गुरुदेव के निमित्त से बहुत लाभ लिया।
                          क्या कभी कोई सोच सकता है कि चमार लोग माँसाहार छोड़ सकेंगे? आज तो बड़े उच्च वंश वाले मांसाहार तथा अंडे खाने की ओर बढ रहे हैं, तब आचार्यश्री के उपदेश से चमारों का मांसभक्षण त्याग करना बहुत बड़ी बात है।
                      सुसंस्कृत और समुन्नत आत्मा का जीवन पर अद्भुत असर पड़ता है और जिसकी स्वप्न में भी आशा नहीं की जा सकती, वह बात सरलता पूर्वक प्रत्यक्षगोचर हो जाती है।
    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  13. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - ७०     ?

                  "मकोड़े का उपसर्ग"

                     आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के बारे में नेमिसागरज़ी महाराज संस्मरण में बताया-
                      "कोन्नूर के जंगल में महाराज बाहर बैठकर धूप में  सामायिक कर रहे थे। इतने में एक बड़ा कीड़ा-मकोड़ा उसके पास आया और उनके जांघों के बीच में चिपटकर वहाँ का रक्त चूसना प्रारम्भ कर दिया। रक्त बहता जाता था, किन्तु महाराज डेढ़ घंटे पर्यन्त अविचलित ध्यान करते रहे।"
                           नेमिसागरजी ने बताया कि वह उस समय गृहस्थ अवस्था में थे और चिंतित थे कि इस समय क्या किया जाय। यदि कीड़े को पकड़कर अलग करते, तो महाराज के ध्यान में विघ्न आएगा। अतः किंकर्तव्यविमूढ़ हो रहे थे।
                         उन्होंने यह भी कहा कि और भी छोटे-छोटे मकोड़े उस समय आते थे, उनको तो हम दूर कर देते थे किन्तु बड़े मकोड़े की बाधा को हम दूर नहीं कर सके। पुरुष चिन्ह से रक्त बहता था, किन्तु महाराज अपने अखंड ध्यान में पूर्ण मग्न थे।
    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  14. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से -६९     ?

     "उडने वाले सर्प द्वारा उपद्रव मे भी स्थिरता" 

                    तारीख २३-१०-५१ को हम महाराज के साथ रहने वाले  महान तपस्वी निर्ग्रन्थ मुनि १०८ श्री नेमिसाग़रजी के पास बारामती में पहुँचे और आचार्यश्री शान्तिसागर महाराज के विषय में कुछ प्रश्न पूंछने लगे। उनसे ज्ञात हुआ कि  वे लगभग २८ वर्ष से पूज्यश्री के आश्रय मे रहे हैं।
                    कोन्नूर में सर्पकृत परिषह के विषय में जब हमने पूंछा, "तब वे बोले, "कोन्नूर में वैसे सात सौ से अधिक गुफाएँ हैं, किन्तु दो गुफा मुख्य हैं।
                       महाराज प्रत्येक अष्टमी, चौदस को गुफा में जाकर ध्यान करते थे। उस दिन उनका मौन रहता था। एक दिन की बात है कि वे गुफा में घुसे। उनके पीछे एक सर्प भी गुफा में चला गया। वह बड़ा चंचल था। वह सर्प उडान मारने वाला था। अनेक लोगो ने यह घटना देखी थी। जब लोग महाराज के समीप पहुँचते थे, तो वह सर्प महाराज की जंघाओं के बीच में छुप जाता था। लोगों के दूर होते ही वह इधर-उधर फिरकर उपद्रव करता था।"
                          मैंने पूंछा, "यह कब की बात थी?" उन्होंने कहा, "यह मध्यान की बात थी। वह सर्प तीन घंटे तक रहा, पश्चात् चला गया। लोग यदि साहस कर पकड़ लेते, तो इस बात का भय था कि कहीं वह क्रुद्ध होकर महाराज को काट ना दे। इससे किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते थे।"
    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  15. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - ६८     ?

    "विचित्र घटना एवं भयंकर प्रायश्चित ग्रहण"

                        निर्ग्रन्थ रूप में आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज का दूसरा चातुर्मास नसलापुर में व्यतीत कर विहार करते हुए ऐनापुर पधारना हुआ। यहाँ एक विशेष घटना हो गई।
                       शास्त्र में मुनिदान की पद्धति इसी प्रकार कही गई है कि गृहस्थ अपने घर में जो शुद्ध आहार बनाते हैं, उसे ही वह महाव्रती मुनिराज को आहार के हेतु अर्पण करें। दूसरे के घर की सामग्री लाकर कोई दे, तो ऐसा आहार मुनियों के योग्य नहीं है।
                        नसलापुर में महाराज आहार ग्रहण को निकले। एक गृहस्थ ने अपने यहाँ भोजन की बिना किसी प्रकार की तैयारी के सहसा महाराज का पड़गाहन किया और निमित्त की बात है कि उसी दिन पड़गाहने की विधि भी मिल गई, इससे महाराज वहाँ ठहर गए।
                      अब उस बन्धु को अपनी भूल याद आयी कि मैंने यह क्या कर दिया। घर में आहार बना नहीं है और मैंने अन्न जल शुद्ध है, यहाँ भोजन को पधारिये यह कह दिया, अब तत्काल योग्य व्यवस्था करने में चूकता हूँ, तो महाराज यहाँ से चले जावेगे व् लोगों मे मेरी निंदा भी होगी। ऐसे विविध विचारों के जाल में जकड़े हुए उसके मन में एक युक्ति सूझी। उसके घर से लगा हुआ जो श्रावक का घर था, वहाँ आहार के योग्य शुद्ध सामग्री तैयार थी,अतः उसने बड़ी सफाई से सामान अपने घर में लाया। महाराज को इस बात का जरा सा भी पता नहीं लगा। अन्यथा वे वहाँ ठहरते क्यों? होनहार की बात है कि उस गृहस्थ की होशयारी या चालाकी से मुनिराज का आहार वहाँ हो गया।
                       आहार पूर्ण होने के पश्चात् महाराज को ज्ञात हुआ कि आज का आहार ग्रहण नहीं करना था। दूसरे के घर से मांगा गया भोजन आहार के काम में लाया गया था। इससे उनके चित्त में अनेक विचार उत्पन्न होने लगे।
                       ऐसी स्थिति में मुनियों के पास जो सबसे बड़ा हथियार जो प्रश्चित्य का रहता है, उसका उन्होंने अपने ऊपर प्रयोग करने का निश्चय किया।
                      उन्होंने उसी दिन मध्यान्ह में सूर्य की प्रचंड किरणों से संतप्त शिला पर जाकर ध्यान करना प्रारम्भ कर दिया। उस दिन की ग्रीष्म का भीष्म परिषह देखकर लोग घबरा गए थे, किन्तु महाराज तो महापुरुष ही ठहरे। उनकी स्थिरता अद्भुत थी।
                           कौन सोचेगा, कि पंचम काल में असंप्राप्तसृपटिका संहनन धारक साधू चतुर्थ कालीन मुनियों के समान ऐसा घोर तप करेगा?
                       उस उष्ण परिसह का परिणाम व्यथाजनक रहा लेकिन उन्होंने समतापूर्वक सहन किया। आठ दिन तक दूध के आलावा कुछ आहार नहीं लिया।
    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  16. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से -  ६७     ?
     "जयपुर में भयंकर संकट में मेरुवत स्थिरता"
                    जयपुर में ख़ानियो की नशिया में आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने निवास किया था। 
                    एक दिन नशिया के द्वार को किसी भाई ने भूल कर बंद कर दिया, पवन पर्याप्त मात्रा में नहीं पहुँचने से महाराज को दम घुटने से मूर्छा आ गई।
                        उसके पूर्व में चिल्लाकर दरवाजा खुलवा लेना या बाहर जाने के लिए हो हल्ला करना उनकी आत्मनिष्ठा पूर्ण पद्धति ने प्रतिकूल थी।
                        अतः भीषण परिस्थिति आने पर प्रतिकार के स्थान मे वे आत्मशक्तियों को केंद्रित करके विपत्तियों का स्वागत करने में संलग्न हो जाते थे।
                       उनके आध्यात्मिक कोष में विपत्तियों के प्रति नकार रूप शब्द का अभाव था। 
         
                     कुछ काल के पश्चात् जब द्वार खोला गया तब महाराज मूर्छा की स्थिति में पाए गए।
                    ऐसी ही स्थिति समडोली ग्राम में भी हुई थी। ऐसी ही भीषणतम स्थिति में उनमे घबराहट का लेश मात्र भी नहीं था। उनमें मेरुवत स्थिरता थी।
    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  17. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - ६६     ?

     "उद्धार का भाव जीवन को पवित्र बनाना"

                     आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने अपने उपदेश द्वारा अनेक हरिजनों का सच्चा उद्धार किया है। पाप प्रवृतियों का त्याग ही आत्मा को ऊँचा उठाता है। महाराज के प्रति भक्ति करने वाले बहुत से चरित्रवान हरिजन मिलेंगे।
                        उन्होंने अपनी करुणा वृत्ति द्वारा सभी दीन दुखी जीवो को सत्पथ पर लगाया है। आठ वर्ष पूर्व हमे शेड़वाल में आचार्य महाराज का व्रत धारक शुद्र शिष्य मिला था। उसने मद्य, मांस आदि का त्याग कर अष्टमूल गुण रूप व्रत लिए थे। वह रात्रि में भोजन नही करता था, यद्यपि आजकल बड़े-बड़े धार्मिक परिवार के लोग लक्ष्मी के मद में आकर जैन कुल परम्परागत प्रसिद्ध क्रिया को भूल गए हैं। उस हरिजन भाई का जीवन बड़ा सुंदर था।
                     वह कहता था कि मैं अष्टमी चतुर्दशी को व्रत करता हूँ। आज के हरिजन भक्त जैन ऐसे मिलेगें जिन्हें दूसरों को व्रत पालन करते देख कष्ट होता है।
                  हमे अनेक धनी मानी परिवारों के व्यक्तियों का निकट जीवन देखने का मौका मिला है, जो समाज सेवा व लोक अहंकार का मुकुट मस्तक पर बांधे हुए आनंदित होते हैं किन्तु प्राथमिक स्थिति वाले जैन के लिए कुल परम्परागत क्रियाएँ उनमे विलुप्त होती जा रहीं हैं।
                       ऐसे पतित आचरण के लोग उस हरिजन भाई को अपना गुरु बनावें तो कल्याण होगा।
                   सन १९६९ में आचार्यश्री १०८ देशभूषण महाराज की जन्म भूमि कोथुली में एक सुशिक्षित हरिजन मिला, जो उनके तथा आचार्य पायसागरजी के उपदेश से प्रगाढ़ अहिंसाप्रेमी बना।
                      वह क्षय रोग की अंतिम अवस्था में भी उसने मांस मदिरा युक्त इंजेक्शन नहीं लिया। उसने हमे कहा था, "जगदम्बा ! अहिंसा और णमोकार मंत्र के कारण मेरा क्षय रोग दूर हो गया"।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  ?
  18. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - ६५     ?

                   "हरिजनों पर प्रेम दृष्टि"

                   एक बार आचार्यश्री शान्तिसागर जी महाराज से पूंछा- "महाराज हरिजनों के उद्धार के विषय में आपका क्या विचार है?
                      महाराज कहने लगे- "हमें हरिजनों को देखकर बहुत दया आती है। हमारा उन बेचारों पर रंचमात्र भी द्वेष नहीं है।
      
                         गरीबी के कारण वे बेचारे अपार कष्ट भोगते हैं। हम उनका तिरस्कार नहीं करते हैं। हमारा तो कहना तो यह है कि उन दीनों का आर्थिक कष्ट दूर करो, भूखे को रोटी दो, हेय( छोडने योग्य ) व उपादेय (लाभकारी ) का बोध करवाओ।
                        तुमने उनके साथ भोजन पान कर लिया, तो इससे उन विचारों का कष्ट कैसे दूर हो गया?
                 ये सब हमारे भाई हैं। सब पर दया करना जैन धर्म का मूल सिद्धांत है। अन्य मतावलंबी सभी साधु भी हमारे भाई हैं। हम पूर्व में कई भव नीच पर्याय को धारण कर चके हैं। हरिजनों के प्रति हमारा द्वेष भाव नहीं है।"
                       उन्होंने कहा- "तुम कई मंजिलो वाले भवनों में रहो और वे झोपड़ी में पड़े रहें। वे आवश्यक अन्य वस्त्र भी ना पा सकें। इसकी फिकर ना करके तुम उनके साथ खाने को कहते हो। साथ में खाने में आत्मा का उद्धार नहीं होता है। जीवन का उद्धार तो होता है पाप का त्याग करने से।
                        उनको शराब, मांस, शिकार का त्याग कराओ। निरपराधी जीव की हिंसा का त्याग कराओ। उनकी गरीबी का कष्ट दूर करो। प्रत्येक गरीब को उचित भूमि दो, इसके साथ शर्त हो कि वह मद्य, मांस, शिकार का त्याग करें तथा निरपराध जीवों का वध ना करें। उनका जीवन ऊँचा उठाओ।
    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  ?
  19. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - ६४     ?

                   "धर्म में अरुचि क्यों?"

                        आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने उनके शिष्य मुनिश्री वीरसागरजी महाराज को आचार्य पद प्रदान किया था।
                    एक बार आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज से प्रश्न किया गया- "महाराज ! महाराज आजकल अन्य लोगो की जैनधर्म में रुचि नहीं है। जैनी क्यों अल्प संख्या वाले है?
                         उन्होंने कहा - "जौहरी की दुकान में बहुत थोड़े ग्राहक रहते हैं, फिर भी उसका अर्थलाभ विपुल मात्रा में होता है। सागभागी बेचने वाले की दुकान पर बड़ी भीड़ लगी रहती है, फिर भी बहुत थोड़ी ही आमदनी होती है। इसी प्रकार वीतराग भगवान का धर्म है। बिना निर्मल परिणाम हुए उसे पालन करने को लोगों की तबियत नहीं होती।"
                      अनादि संस्कार वश जीव असंयम की ओर जाता है। जो उपदेश उस ओर ले जाता है वह मोही जीव को अच्छा लगता है। पुरुषार्थी तथा आत्मबली व्यक्ति जितेन्द्रियता के उपदेष्टा धर्म में लगते हैं। ऐसी उच्च आत्माए थोड़ी संख्या में होती हैं।
    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  ?
  20. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - ६३     ?

              "मुनि मार्ग के सच्चे सुधारक"

                    आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के संबंध में आचार्यश्री वीरसागरजी महाराज कहने लगे- "आचार्य महाराज ने हम सब का अनंत उपकार किया है। उन्होंने इस युग में मुनिधर्म का सच्चा स्वरूप आचरण करके बताया था।
                        उनके पूर्व उत्तर में तो मुनियों का दर्शन नहीं था और दक्षिण में जहाँ कहीं मुनि थे, उनकी चर्या विचित्र प्रकार की थी। वे दिगम्बर मुनि कहलाते भर थे, किन्तु ऊपर से एक वस्त्र ओढ़े रहते थे।
                      वे मुनि उस जगह जाते थे, जहाँ उपाध्याय पहले से जाकर पक्की व्यवस्था कर लेता था। लोगों को पदगाहने की विधी मालूम नहीं थी। उपाध्याय उस समय मुनि को आहार कराता था और स्वयं भी माल उड़ाता था।
                     उस वातावरण को देख शान्तिसागर महाराज के मन ने यह अनुभव किया कि यह तो निर्ग्रन्थ मुनि की चर्या नहीं हो सकती। उन्होंने उपाध्याय द्वारा पूर्व निर्णीत घर में जाना एकदम छोड़ दिया। दिगम्बर मुद्रा धारण कर उन्होंने आहार के लिए बिहार करना प्रारम्भ दिया।
                   लोगो को विधि मालूम ना होने से वे उनको यथाशास्त्र नहीं पडगाहते थे। इससे महाराज लौट करके चुपचाप आ जाते। शांत भाव से वह दिन उपवास पूर्वक व्यतीत करते थे। 
                     दूसरे दिन भी ऐसा ही हुआ। धर्मात्मा गृहस्थो में चिंता उत्पन्न हो गई। फिर भी वे नहीं जानते थे कि इनके उपवास का क्या कारण है? क्योंकि वे गुरुदेव शांत थे और किसी से अपनी बात नहीं कहते थे।
                    उनकी चर्या देखकर कोई भी आदिप्रभु के युग को स्मरण करेगा। ऐसी परिस्थिति के मध्य जब चार दिन बीत गए, तब ग्राम के प्रमुख पाटील ने उपाध्याय को बुलाकर कड़े शब्दों में कहा- "साधुला मरतोस काय ? विधि का सांगत नाहीं ? साधु को मरेगा क्या ? विधि क्यों नहीं बताता ?" तब उपाध्याय ने ठीक-ठीक विधि बताई, तब पडगाहना शुरू हुआ।
    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  ?
  21. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - ६२     ?

                        "जगत के गुरु"
             
                 आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के बारे में आचार्यश्री वीरसागरजी महाराज संस्मरण में कहने लगे- "उनकी वाणी में कितनी मिठास, कितना युक्तिवाद और कितनी गंभीरता थी, यह हम व्यक्त नहीं कर सकते।
                     महाराज, जब आलंद (निजाम राज्य में) पधारे, तब उनका उपदेश वहाँ मुस्लिम जिलाधीश के समक्ष हुआ।
                   उस उपदेश को सुनकर वह अधिकारी और उनके सरकारी मुस्लिम कर्मचारी इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने महाराज को साष्टांग प्रणाम किया और बोले- "महाराज, जैनो के ही गुरु नहीं हैं, ये तो जगत के गुरु हैं। हमारे भी गुरु हैं।"
                       आचार्य महाराज समय को देख सुंदर ढंग से इस प्रकार तत्व बतलाते थे कि शंका के लिए स्थान नहीं रहता था। मैंने पूछा- "उस भाषण में महाराज ने क्या कहा था?" शिवसागर महाराज बोले- "आचार्य महाराज ने देव, गुरु तथा शास्त्र का स्वरूप समझाया था।"
    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  ?
  22. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - ६१    ?

                     "गंभीर प्रकृति"

                    आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के शिष्य आचार्यश्री वीर सागरजी महाराज ने अपने गुरु आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के संस्मरण में बताया कि-
                      आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज आहार में केवल दूध और चावल लेते थे। अत्यंत बलवान और सुदृढ शरीर में वह भोज्य पदार्थ थोड़े ही देर में पच जाता था, फिर भी महाराज ने यह कभी नही कहा कि गृहस्थ लोग विचारहीन हैं, एक ही पदार्थ को देते हैं।
                    एक दिन चंद्रसागरजी ने कहा- "महाराज ! आप दूध, चावल ही क्यों लेते हैं और भोजन क्यों नहीं करते?" कुछ देर चुप रहकर महाराज ने कहा- "जो गृहस्थ देते हैं वह मैं लेता हूँ। इन्होंने दूध चावल ही दिए, दूसरी चीज दी ही नहीं, इसलिए मैं दूध और चावल ही लेता रहा।" इस प्रकार मनोगत को जानकर लोगों ने आहार में अन्य पदार्थ देना प्रारम्भ किया।
    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  ?
  23. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - ६०    ?

                   "चोर पर करुणा"
                 
                    आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के गृहस्थ जीवन एक घटना पर वर्धमानसागर महाराज ने इस प्रकार प्रकाश डाला था-
                  "गृहस्थ अवस्था मे एक दिन महाराज, शौच के लिए खेत में गए थे, तो कि क्या देखते हैं कि हमारा ही नौकर एक गट्ठा ज्वारी चोरी कर के ले जा रहा था। उस चोर नौकर ने महाराज ने देख लिया।
                    महाराज की दृष्टि भी उस पर पड़ी। वे पीठ करके चुपचाप बैठ गए। उनका भाव था कि बेचारा गरीब है, इसलिए पेट भरने को ही अनाज ले जा रहा है।
                    उस दीन पर दया भाव होने से महाराज ने कुछ नहीं कहा, किन्तु वह चोर नौकर घर आया हमारे पास आकर बोला कि अण्णा ! भूल से मैं खेत से ज्वार लेकर जा रहा था, सातगौड़ा ने मुझे देख लिया, लेकिन कहा कुछ नहीं।"
    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  ?
  24. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - ५९    ?

              "क्रांतिकारी धार्मिक संतराज"

                      इस प्रकार शान्तिसागर जी महाराज के जीवन मे अवर्णनीय बाधाएँ, जो पिछले प्रसंगों में वर्णित की गई हैं, आती रहीं, किन्तु ये शान्तिसागर महाराज शांति के सागर ही रहे आये आये और कभी भी 'ज्वाला प्रसाद' नहीं बने।
                     धीरे धीरे समय बदला और लोगो को महाराज की क्रियाओं का ज्ञान हो गया। इससे विध्न की घटा दूर हो गई। इस प्रकाश में तो महाराज प्रचलित मिथ्या पृव्रत्तियों का उच्छेद करने वाले प्रचंड विद्रोही के रूप में दिखते हैं। उन जैसा सुधारक कहा मिलेगा?
                     आज तो संयम रूपी अमृत कलश को फोड़कर फेकने वाला और विषय विष की प्याली पीने वाला पुरुष ही मस्तक पर सुधारक के मुकुट को धारण करता है।
                        जो सुधार महाराज ने किया और धर्म का निर्दोष मार्ग प्रचलित कराया, उसे देख इन्हें सचमुच में इस युग के धार्मिक क्रांतिकारी महापुरुष कहना होगा।
                    ऐसी ही अनेक शिथिल प्रवृत्तियों में उन्होंने सुधार कर धर्म मार्ग में नवीन जीवन डाला।
    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  ?
  25. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - ५८    ?

                "परम्परा वश अपार विध्न"

                     उस समय के मुनि लोग भी कहने लगे कि ऐसा करने से काम नहीं होगा। ये पंचम काल है। इसे देखकर ही आचरण करना चाहिए। ऐसी बात सुनकर आगम भक्त शान्तिसागर महाराज कहते थे, "यदि शास्त्रानुसार जीवन नहीं बनेगा, तो हम उपवास करते हुए समाधिमरण को ग्रहण करेंगे, किन्तु आगम की आज्ञा की उलंघन नहीं करेंगे।"
                      उस समय की परिस्थिति ऐसी ही विकट थी, जैसे की हम पुराणों में, आदिनाथ भगवान के समय विधमान पढ़ते हैं।
                         जहाँ श्रावको को अपने कर्तव्य का ज्ञान नहीं है, जानकर उपाध्याय लालच वश विध्नकारी बन रहे हैं तथा बड़े-बड़े मुनि कलदोष के नाम पर शास्त्र की आज्ञा को भुला रहे हैं, वहाँ हमारा भविष्य का जीवन कैसे चलेगा, इस बात की महाराज को तनिक भी चिंता नहीं थी।
                      उन्हें एक मात्र चिंता थी तो जिनवाणी के अनुसार प्रवृत्ति करने की। जिनेन्द्र की आज्ञानुसार प्रवृत्ति करते हुए मृत्यु उन्हें बड़ी प्रिय मालूम पड़ती थी और आगम के विरुद्ध जीवन को वे आत्मा की मृत्यु सोचते थे।
                    उस कठिन परिस्थिति में उनकी उग्र तपश्चर्या का अनुमान कौन कर सकता है?
                     अत्यंत बलशाली शरीर को योग्य काल में आहार देना आवश्यक है। भोजन ना मिलने से बड़े-बड़े भक्त भगवान को भुला दिया करते हैं। क्षुधा की असह्य वेदना में मनुष्य पत्ते व घास खाकर इन प्राणों के रक्षण के लिए तत्पर होता है। संसार में ऐसा कोई अनर्थ नहीं है, जिसे पेट की ज्वाला से पीड़ित व्यक्ति ना करे।
                       ऐसी लोकस्थिति होते हुए भी शान्तिसागर महाराज वज्र की तरह अचल रहे। चर्या के लिए वे बराबर निकलते थे। आहार नहीं मिलता था, तो लाभान्तराय कर्म का उदय तीव्र है, ऐसा जानते हुए शांत भाव से मंदिर में आकर धर्म-ध्यान में अपना समय व्यतीत करते थे।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  ?
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