निधि लुट गई - अमृत माँ जिनवाणी से - १२६
? अमृत माँ जिनवाणी से - १२६ ?
"निधि लुट गई"
समाधिमरण की सफल साधना से बड़ी जीवन में कोई निधि नहीं है। उस परीक्षा में पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज प्रथम श्रेणी में प्रथम आए, इस विचार से तो मन में संतोष होना था, किन्तु उस समय मन विहल हो गया था। जीवन से अधिक पूज्य और मान्य धर्म की निधि लूट गई, इस ममतावश नेत्रों से अश्रुधारा बह रही थी।
उनके पद्मासन शरीर को पर्वत के उन्नत स्थल पर विराजमान कर सब लोगों को दर्शन कराया गया। उस समय दर्शकों को यही लगता था कि महाराज तो हमारे नेत्रों के समक्ष साक्षात् बैठे हैं और पुण्य दर्शन दे रहे हैं। पर्वत पर साधुओं आदि ने भक्ति का पाठ पढ़ा, कुछ संस्कार हुए।
बाद में विमान में उनकी तपोमयी देह को विराजमान गया। यहाँ उनका शरीर काष्ट के विमान विराजमान किया गया था। परमार्थतः महाराज की आत्मा संयम साधना के प्रसाद से स्वर्ग के श्रेष्ठ विमान में विराजमान हुई होगी। यह विमान दिव्य विमान का प्रतीक दिखता था।
? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
0 Comments
Recommended Comments
There are no comments to display.