जीवन की उज्ज्वल घटनाओं की स्मृति - अमृत माँ जिनवाणी से - १२८
? अमृत माँ जिनवाणी से - १२८ ?
"जीवन की उज्जवल घटनाओं की स्मृति"
आचार्यश्री के शरीर के संस्कार के उपरांत धीरे-धीरे पर्वत से नीचे आए, रात्रि को लगभग ८ बजे पर्वत पर हम पुनः पहुँचे। तपोग्नि से पुनीत देह को घेरे भौतिक अग्नि वेग से जल रही थी। हम वहीं लगभग ३ घंटे बैठे। उठने का मन ही नहीं होता था।
आचार्यश्री के जीवन की पुण्य घटनाओं तथा सत्संगों की बार-बार याद आती थी, कि इस वर्ष का (सन् १९५५ ) का पर्युषण पर्व इन महामानव के समीप वीताने का मौका ही न आया। अग्नि की लपटें मेरी ओर जोर-जोर से आती थी। मै उनको देखकर विविध विचारों में निमग्न हो जाता था।
अब महाराज के दर्शन और सत्संग का सौभाग्य सदा के लिए समाप्त हो गया, इस कल्पना से अंतःकरण में असह्य पीड़ा होती थी। तो दूसरे क्षण महापुराण का कथन याद आता था, कि आदिनाथ भगवान के मोक्ष होने पर तत्वज्ञानी भरत शोक-विहल हो रहे थे। उनको दुखी देखकर वर्षभसेन गणधर ने सांत्वना देते हुए कहा था, "अरे भरत ! निर्वाण कल्याणक होना आनंद की बात है। उसमे शोक की कल्पना ठीक नहीं है, 'तोषे विषादः कुतः'।"
इस प्रकार गुरुदेव की छत्तीस दिन लंबी समाधी श्रेष्ठ रीति से पूर्ण हो गई। यह संतोष की बात मानना चाहिए। शोक की बात सोचना अयोग्य है। ऐसा विचार आने मनोवेदना कम होती थी।
आगम में कहा है, 'न हि समाधिमरणंशुचे' समाधिमरण शोक का कारण नहीं है।
? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
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