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Abhishek Jain

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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

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  1. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ११४   ?

                    "आगम का सार"

                  पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने सल्लेखना के२६ वे दिन के अमर सन्देश में कहा था- "जीव एकला आहे, एकला आहे ! जीवाचा कोणी नांही रे बाबा ! कोणी नाही.(जीव अकेला है,अकेला है। जीव का कोई नहीं बाबा, कोई नहीं है।)"
            इसके सिवाय गुरुदेव के ये बोल अनमोल रहे- "जीवाचा पक्ष घेतला तर पुद्गलाचा घात होतो। पुद्गलाचा पक्ष घेतला तर जीवाचा घात होतो। परंतु मोक्षचा जाणारा जीव हा एकलाच आहे पुद्गल नहीं( जीव का पक्ष ग्रहण करने पर पुद्गल का घात होता है, पुद्गल का पक्ष ग्रहण करो, तो आत्मा का घात होता है, परंतु मोक्ष को जाने वाला जीव अकेला ही है, पुद्गल के साथ मोक्ष नहीं जाता है।)"
            अग्नि में तपाया गया सुवर्ण जिस प्रकार परिशुद्ध होता है, उसी प्रकार सल्लेखना की तपोग्नि द्वारा आचार्य महाराज का जीवन सर्व प्रकार से लोकोत्तर बनता जा रहा था। दूरवर्ती लोग उस विशुद्ध जीवन की क्या कल्पना कर सकते हैं?
              सल्लेखना की बेला में महराज केवल प्रशांत मूर्ति दिखते थे। उस समय वे नाम निक्षेप की दृष्टि से नहीं, अनवर्थता की अपेक्षा शांति के सिंधु शान्तिसागर थे। वे पूर्णतः अलौकिक थे।
    ?छब्बीसवां दिन - ८ सितम्बर१९५५?
            आचार्यश्री की सल्लेखना का २६ वां दिन था। कमजोरी बहुत बड़ गई थी। आज के दिन अकिवाट से श्री १०८ मुनि पिहितस्त्रव जी भी आ गए। आचार्यश्री को कमजोरी के कारण बिना सहारा दिए चलना भी मुश्किल हो गया। बम्बई से निरंजनलाल जी रिकार्डिंग मशीन लेकर आचार्यश्री के दर्शनार्थ पधारे।
          आज आचार्यश्री का २२ मिनिट मराठी मे अंतिम उपदेश हुआ जी रिकार्ड किया गया।

    ? स्वाध्याय चारित्रचक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  2. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ११३   ?

                 "सबकी शुभकामना"
         
            पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज वास्तव में लोकोत्तर महात्मा थे। विरोधी व विपक्षी के प्रति भी उनके मन मे सद्भावना रहती थी। एक दिन मैंने कहा- "महाराज ! मुझे आशीर्वाद दीजिये, ऐसी प्रार्थना है।
                महाराज ने कहा था- "तुम ही क्यों जो भी धर्म पर चलता है, उसके लिए हमारा आशीर्वाद है कि वह सद्बुद्धि प्राप्त कर आत्मकल्याण करे।"

    ?पच्चीसवाँ दिन - ७ सितम्बर११५५?
                     सल्लेखना का आज २५ वां दिन था। ४ सितम्बर के बाद जल ग्रहण ना करने का तीसरा दिन। कमजोरी बहुत बड़ गई थी, फलतः चक्कर भी आने लगे। बिना लोगों के सहारे के खड़े होना मुश्किल हो गया था, फिर भी जनता को दोनो समय दर्शन दिए। 
              आज जब लोगों ने आचार्यश्री से चर्चा के समय जल ग्रहण करने के लिए निवेदन किया तो आचार्यश्री ने यही उत्तर दिया कि चूंकि बिना सहारे शरीर खड़ा भी नही हो सकता, अतः पवित्र दिगम्बर साधु चर्या को सदोष नही बनाया जा सकता, जैसी कि शास्त्र आज्ञा है।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  3. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ११२   ?

                 "लोककल्याण की उमंग"

                        कुंभोज बाहुबली क्षेत्र पर आचार्यश्री पहुँचे। उनके पवित्र ह्रदय में सहसा एक उमंग आई, कि इस क्षेत्र पर यदि बाहुबली भगवान की एक विशाल मूर्ति मिराजमान हो जाए, तो उससे आसपास के लाखों की संख्या वाले ग्रामीण जैन कृषक-वर्ग का बड़ा हित होगा। महाराज ने अपना मनोगत व्यक्त किया ही था, कि शीघ्र ही अर्थ का प्रबंध हो गया।
             उस प्रसंग पर आचार्य महाराज ने ये मार्मिक उद्गार व्यक्त किये थे- "दक्षिण में श्रवणबेलगोला को साधारण लोग कठिनता से पहुँचते हैं, इससे सर्वसाधारण के हितार्थ बाहुबली क्षेत्र पर २८ फुट ऊँची बाहुबली भगवान की मूर्ति विराजमान हो। मेरी यह हार्दिक भावना थी। अब उसकी पूर्ति हो जायेगी, यह संतोष की बात है।"
             महाराज की इस भावना का विशेष कारण है। महाराज मिथ्यात्व त्याग को धर्म का मूल मानते रहे हैं। भोले गरीब जैन अज्ञान के कारण लोकमूढ़ता, देवमूढ़ता, गुरुमूढ़ता के फंदे में फस जाते हैं। 
             महराज लोगों से कहते थे- "कुदेव, कुगुरु और कुशास्त्र का आश्रय कभी मत ग्रहण करो। कुगुरु की वंदना मत करो। उनकी बात भी मत सुनो। यह संसार बढ़ाने का कारण है। इससे बड़ा कोई पाप नहीं है। मिथ्यात्व से बड़ा पाप दूसरा नहीं है। 
               इस विशाल मूर्ति की भक्ति द्वारा साधारण जनता का  अपार कल्याण होगा। सचमुच में मूर्ति कल्पवृक्ष होगी।" आज आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज की भविष्यवाणी अक्षरतः चरितार्थ हो रही है।
    ?चौबीसवाँ दिन - ६ सितम्बर१९५५?
               आचार्यश्री की स्थिति से उपस्थित जनसमूह को अवगत कराने हेतु जनसभा रखी गई। पूज्यश्री ने दोनों समय जनता को दर्शन देकर जतना को तृप्त किया।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  4. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - १११   ?

                     "अभिषेक दर्शन"

              मैंने देखा, कि महाराज एकाग्र चित्त हो जिनेन्द्र भगवान की छवि को ही देखते थे। इधर-उधर उनकी निगाह नहीं पड़ती थी। मुख से थके मादे व्यक्ति के सामान शब्द नहीं निकलता था। तत्वदृष्टि से विचार किया जाय, तो कहना होगा कि शरीर तो पोषक सामग्री के आभाव में शक्ति तथा सामर्थ्य रहित हो चुका था, किन्तु अनन्तशक्ति पुञ्ज आत्मा की सहायता उस शरीर को मिलती थी, इससे ही वह टिका हुआ था। और आत्मदेव की आराधना में सहायता करता था।
            सल्लेखना के ३० वें उपवास के लगभग महाराज ने मंदिर जाकर भगवान के दर्शन कर अभिषेक देखा। अंतिम क्षण के पूर्व जिनेन्द्र देव के अभिषेक के गंधोदक को भक्तिपूर्वक ग्रहण किया। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि उन आगमप्राण साधुराज की दृष्टि में अभिषेक का अवर्णनीय मूल्य था। इधर श्रेष्ठ समाधि धारणरूप निश्चय दृष्टि और इधर जिनेन्द्र भक्ति आदि रूप व्यवहार दृष्टि द्वारा आचार्य महाराज की जीवनी अनेकांत भाव को धोषित करती थी।

    ?तेईसवां दिन - ५ सितम्बर १९५५?
              आज सल्लेखना का तेईसवां दिन है। आशक्ति बढ़ती जाती है। फलतः खड़े होने और बैठने में भी सहारा लेना पड़ता था। फिर भी दोपहर में दो मिनिट के लिए बाहर आये, और जनता को शुभाशीर्वाद देकर तृप्त किया। सारा समय गुफा में आत्मध्यान में व्यतीत हुआ।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  5. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ११०   ?

                   "जल का भी त्याग"

                  पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज की दो-तीन माह से शरीर से अत्यंत विमुख वृत्ति हो गई थी। दूरदर्शी तथा विवेकी साधु होने के कारण उन्होंने जल ग्रहण की छूट रखी थी,
               "किन्तु चार सितम्बर को अंतिम बार जल लेकर उससे भी सम्बन्ध छोड़ दिया था। 
            जगत में बहुत से लोग उपवास करते हैं। वे कभी तो फलाहार करते है कभी रस ग्रहण करते हैं, कभी औषधि लेते हैं, इसके अतिरिक्त और भी प्रकार से शरीर को पोषण प्रदान करते हैं।
                 यहाँ इन आत्मयोगी का उपवास जगत के लोगों से निराला था। शरीर को स्फूर्ति देने के लिए घी, तेल आदि की मालिश का पूर्ण परित्याग था। सभी प्रकार की भोज्य वस्तुएं छूट गयी थी।
               उन्होंने जब भी जल लिया था, तब दिगंबर मुनि की आहार ग्रहण करने की विधि पूर्वक ही उसे ग्रहण किया था। खड़े होकर, दूसरे का आश्रय ना ले, अपने हाथ की अंजुलियों द्वारा थोडा सा जल मात्र लिया था चार सितम्बर को उक्त स्थिति में इन्होंने चार-छह अंजुली जल लिया था, परन्तु तीस दिन के अनाहार शरीर को खडे रखकर जल लेने की क्षमता भी उस देह में नहीं  रही थी। वास्तव में ८४ वर्ष के वृद्ध तपस्वी के शरीर द्वारा ऐसी साधना इतिहास की दृष्टि से भी लोकोत्तर मानी जायेगी।

    ? बाइससवाँ दिन - ४ सितम्बर१९५५?

                     आज पूज्यश्री ने अंतिम जल ग्रहण किया, लेकिन अशक्ति बढ़ जाने के कारण बहुत थोडा जल लिया और बैठ गए।
               दोपहर में २|| बजे बहुत जोरों की वर्षा हुई, फिर भी आचार्यश्री के पुण्य दर्शनों के लिए जनता पानी में बराबर बैठी रही, फिर भी आचार्यश्री ने २ मिनिट के लिए उपस्थित जनता को दर्शन दिए।
              
    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  6. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - १०८   ?

                    "आध्यात्मिक सूत्र"

                  एक दिन दिवाकरजी पूज्य क्षपकराज आचार्यश्री शान्तिसागरजी के सम्मुख आचार्य माघनन्दी रचित आध्यात्मिक सूत्रो को पढ़ने लगा।
            उन्होंने कहा- "महाराज देखिये ! जिस आत्मस्वरुप के चिन्तवन में आप संलग्न हैं और जिसका स्वाद आप ले रहे हैं उसके विषय में आचार्य के सूत्र बड़े मधुर लगते है, चिदानंद स्वरूपोहम (मै चिदानंद स्वरुप हूँ), ज्ञानज्योति-स्वरूपोहम (मै ज्ञान ज्योति स्वरुप हूँ), शुद्धआत्मानुभूति-स्वरूपोहम (मै शुद्ध आत्मानुभूति स्वरुप हूँ), अनंतशक्ति-स्वरूपोहम (मैं अनंत स्वरुप हूँ), कृत्कृत्योंहम (मै कृत-कृत्य हूँ), सिद्धम स्वरूपोहम (मै सिद्ध स्वरुप हूँ), चैतन्यपुंज-स्वरूपोहम (मै चैतन्यपुंज रूप हूँ).........
             इसे सुनकर महाराज ने कहा- "यह कथन भी आत्मा का यथार्थ रूप नहीं बताता है। अनुभव की अवस्था दूसरे प्रकार की होती है। जब आत्मा ज्ञानादि गुणों से परिपूर्ण है, तब बार-बार 'अहं' क्या कहते हो। मै जो हूँ सो हूँ। बार-बार 'मैं', 'मैं' क्यों कहते हो।" यह कहकर गुरुदेव चुप हो गए। उक्त कथन महायोगी के अनुभव पर आश्रित था। उनकी गंभीरता मनीषियों के मनन योग्य है।

    ? बीसवाँ दिन - २ सितम्बर १९५५  ?
                         आज चार दिन के बाद जल ग्रहण किया। साढ़े तीन बजे दिन में आचार्यश्री १० मिनिट को गुफा से बाहर आये थे और जनता को दर्शनों का पुण्यलाभ कराया था। आज के दिन पंडित जगमोहनलालजी शास्त्री दर्शनार्थ पधारे। आपका दोपहर में सम्बोधन वा रात्रि में शास्त्र प्रवचन हुआ।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  7. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - १०७     ?

                       "वैराग्य भाव"

                        कुछ विवेकी भक्तों ने पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज से प्रार्थना की थी- "महाराज अभी आहार लेना बंद मत कीजिए। चौमासा पूर्ण होने पर मुनि, आर्यिका आदि आकर आपका दर्शन करेंगे। चौमासा होने से वे कोई भी गुरुदर्शन हेतु नहीं आ सकेगें।"
           महाराज ने कहा- "प्राणी अकेला जन्म धारण करता है, अकेला जाता है, 'ऐसी एकला जासी एकला, साथी कुणि न कुणाचा.(कोई किसी का साथी नहीं है।) ' क्यों मै दूसरों के लिए अपने को रोकूँ, हम किसी को न आने को कहते हैं, और ना जाने को कहते हैं।"
            संघपति सेठ गेंदनमलजी ने कहा- "महाराज ! जो आपके शिष्य है वे अवश्य आवेंगे।
    महाराज- "उनके लिए हम अपने आत्महित में क्यों बाधा डालें।"
        इसके पश्चात् ही महाराज के मन में कुंथलगिरि के पर्वत के शिखर पर जाने का विचार आया। यह ज्ञात होते ही भट्टारक जिनसेन स्वामी ने कहा, "महाराज ! आज का दिन ठीक नहीं है। आज तो अमावस्या है।"
            सामान्यतः आचार्यश्री के जीवन में सभी महत्व के कार्य मुहूर्त के विचार के साथ हुआ करते थे, किन्तु उस समय उनका मन समाधि के लिए अत्यंत उत्सुक हो चुका था। वैराग्य का सिंधु वेग से उद्देलित हो रहा था। इससे वे बोल उठे- "महावीर भगवान अमावस्या को ही तो मोक्ष गए हैं। इसमें क्या है? भवितव्यता अलंघनीय है।"
    ? उन्नीसवाँ दिन - १ सितम्बर १९५५ ?
                          पूज्यश्री के जल नहीं ग्रहण करने का आज चौथा दिन था। दोनों समय उपस्थित जनता को दर्शन दिए। आज सारा समय गुफा के अंदर ही व्यतीत किया। रात्रि १ बजे महाराजश्री की तबीयत काफी नरम हो गई थी, अतः बाहर के कमरे में करीब दो घंटे बैठे रहे।"

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
    ☀आज मुझे बहुत ही हर्ष का दिन है क्योंकि मैंने भावना की थी कि मै संस्कृति के परम उपकारक पूज्य शान्तिसागरजी महाराज के जीवन चरित्र के १०८ प्रसंग रूपी श्रद्धा पुष्प सभी तक पंहुचाऊ। पूज्यश्री के प्रति भक्ति से ही यह कार्य संपन्न हो सका।
              प्रसंग प्रस्तुती में मेरा अपना कुछ भी नहीं है, चरित्रचक्रवर्ती ग्रन्थ में उपलब्ध जानकारी को ही आप सभी तक पहुचाने का प्रयास किया हूँ। 
              मेरी भावना है कि यह प्रसंग जन-२ तक पहुँचे जिससे सभी सदी के प्रथमाचार्य, श्रमण संस्कृति के परम उपकारक को समझे तथा पूज्य शान्तिसागरजी महाराज की तरह ही वर्तमान में भारतवर्ष में तपश्चरण कर रहे सभी साधुओं के प्रति हम सभी का विनयभाव बड़े।
  8. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - १०६     ?

                     "आत्मध्यान"

                     'आत्मा का चिंतन करो', यह बात दो या तीन वषों से पुनः-पुनः दोहरा रहे थे। उन्होंने सन् १९५४ में फलटण में चातुर्मास के पूर्व सब समाज को बुलाकर कहा था- "तुम अपना चातुर्मास अपने यहाँ कराना चाहते हो, तो एक बात सबको अंगीकार करनी पड़ेगी।"
            सबने उनकी बात शिरोधार्य करने का वचन दिया।
            पश्चात् महाराज ने कहा- "सब स्त्री पुरुष यदि प्रतिदिन कम से कम पाँच मिनिट पर्यन्त आत्मा का चिंतवन करने की प्रतिज्ञा करते हैं तो हम तुम्हारे नगर में चातुर्मास करेंगे, अन्यथा नहीं।"
            श्रेष्ठ साधुराज के समागम का सौभाग्य सामान्य नहीं था। सब लोगों ने गुरुदेव की आज्ञा स्वीकार की थी। आत्मचिन्तवन में उनको अपूर्व आनंद आता था, इससे वे लोक हितार्थ इसकी प्रेरणा करते थे।।

    ? अठारहवां दिन - ३१ अगस्त १९५५ ?
                     जल ग्रहण ना करने का यह तीसरा दिन है। दोनों समय उपस्थित जनता को दर्शन दिए और शुभाशीर्वाद दिया।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  9. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - १०५     ?

                       "अद्भुत दृश्य"
        
              यम समाधि के बारहवें दिन ता. २६ अगस्त को महाराज जल लेने को उठे। उनकी चर्या में तनिक भी शिथिलता नहीं थी।
               मंदिर में भगवान का अभिषेक उन्होंने बड़े ध्यान से देखा। इससे समाधि की परम बेला में भी वे अभिषेक को देखकर निर्मलता प्राप्त करते थे। बाद में महाराज चर्या को निकले। हजारों की भीड़ उनकी चर्या देखने को पर्वत पर एकत्रित थी। अद्भुत दृश्य था। 
              नवधाभक्ति के बाद महाराज के बाद महाराज ने खड़े-खड़े अपनी अंजली द्वारा थोडा-सा जलमात्र लिया और पश्चात् वे क्षण भर में ही बैठ गए। कुछ क्षण बाद गमनकर अपनी कुटी में आये और पुनः आत्मचिंतन में निमग्न हो गए।
               आत्मचिंतन उनका प्रिय व् अभ्यस्त कार्य था। संसार को वह कार्य बड़ा कठिन लगता है। वास्तव में वे महान योगी थे।

    ?  सत्रहवाँ दिन - ३० अगस्त १९५५  ?

                       आज जल ग्रहण नहीं करने का दूसरा दिन है। दोपहर में जनता को दर्शन दिए। गश आ जाने से महाराज लेट गए। स्वप्न में उन्हें मालूम हुआ कि श्री कुलभूषण देशभूषण भगवान उन्हें ऊपर बुला रहे हैं। दरवाजे के ऊपर जो छोटा मंदिर है, उसमे यह घटना हुई।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  10. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - १०४     ?

               "११०५ दिन बाद अन्नाहार"

                        १६ अगस्त १९५१ को धर्म पर आये संकट से रक्षा के उपरांत रक्षाबंधन के दिन इस युग के अकम्पन ऋषिराज शान्तिसागरजी महाराज ने तथा उनके अतिशयभद्र वीतरागी तपस्वी शिष्य मुनि नेमिसागर ने अन्नाहार लिया।
                    आचार्य महाराज का अन्नाहार ११०५ दिनों के पश्चात् हुआ था। रोगी व्यक्ति को जब दो चार दिन को अन्न नहीं मिलता है, तो वह निरंतर अन्न को ही तरसता है। अन्न को तो प्राण कहता है। आचार्यश्री की तपस्या अद्भुत थी। वे यथार्थ में तपोधन थे।
             बारामती में एक पण्डाल में भी बड़ा चौका बनाया गया था। सौभाग्य से उसमे ही महाराज का आहार हुआ था। सभी लोगों को इस मंगल प्रसंग पर उत्तम पात्र की सेवा का अपूर्व सौभाग्य मिल सका। आहार के मंगलमय ऐतिहासिक अवसर पर आकाश से थोड़ी-२ जल बिंदुओं की वर्षा हो रही थी, मानों मेधकुमार जाति के देव अपना आनंद व्यक्त कर रहे हों। अद्भुत दृश्य था वह प्रकृति भी पुलकित हो रही थी।
             महान तपस्वी की ११०० दिन बाद पूर्ण हुई सफलता पर आसपास के सभी लोगों में चर्चा थी। लोग महान आचार्यश्री के तपःपूत जीवन के प्रति श्रद्धापूर्ण उद्गार व्यक्त करते थे। बम्बई आदि बड़े-बड़े नगरों के विचारक वर्ग बातें करते थे, तपस्वी का नाम ले इंद्रियों का पोषण करने वाले साधु दुनिया भर में मिलते है, किन्तु ऐसे महात्मा कहाँ हैं, जिन्होंने अपने पवित्र धर्म और संस्कृति के संरक्षणार्थ प्रिय प्राणों की परवाह नहीं की, किन्तु जिसके पूण्य से उनकी तपस्या सफल हुई ओर जैन धर्म की पवित्रता अक्षुण्ण रह गई।
    ? सोलहवाँ दिन - २९ अगस्त १९५५ ?

              आज पूज्यश्री ने जल ग्रहण नहीं किया। पं. मख्खनलालजी शास्त्री मोरेना से दर्शनार्थ पधारे। आज के दिन दोपहर में आचार्यश्री गुफा से बाहर नहीं पधारे। अतः जनता पुण्य लाभ नहीं कर सकी। महाराज के शरीर को कमजोरी कुछ बड़ गई।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  11. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - १०३     ?

                       "गंभीर स्थिति"
                 
                         सन् १९४७ में बम्बई सरकार द्वारा पारित निर्णय के फलस्वरूप धर्म पर एक बड़ा संकट आया था। कोर्ट में उस निर्णय के विरोध में याचिका चल रही थी।
                 २४ जुलाई १९५१ का मंगलमय दिवस आया जब बम्बई कानून के सम्बन्ध में न्यायालय में निर्णय होना था। ११ बजे चीफ जस्टिस व् जस्टिस आ गए। पौने दो बजे प्रधान न्यायाधीश ने अपने बकील दास बाबू से पूंछा"कहिए दास बाबू आपका क्या मामला है?"
                    एकदम गंभीर वातावरण हो गया। दास बाबू के अपने केस की कथा प्रारम्भ की। इस प्रकार बहस चल रही थी कि न्यायाधीश जलपान के लिए दो बजे उठ गए।उस न्यायाधीश के रंगढंग ऐसा दिखा कि अब मामला ख़ारिज होने में देरी नहीं। जजों के प्रश्नो के आगे जैनों के तरफ का उत्तर असरकारी नहीं दिखता था। सैकड़ों जैन भाइयों के चेहरों पर उदासी छा गई। हमारे मन में इस बात की चिंता थी कि कहीं अपने विरुद्ध निर्णय हुआ, तो इसका आचार्य महाराज पर अच्छा असर नहीं पड़ेगा।
           ?"आचार्यश्री की आराधना"?
                पास बैठे बारामती से आए सेठ तुलजाराम चतुरचंद ने सुनाया कि- "आचार्य महाराज ने तीन दिन से बिलकुल भी आहार नहीं लिया है। वे दिन-रात भगवान के जाप में ही लगे हैं। वे किसी से कुछ बातचीत न करके निरंतर प्रभु नाम स्मरण में ही संलग्न हैं। कुटी से बाहर कुछ क्षणों को आये थे। शौचादि से निवृत्त् हो देवदर्शनादी के बाद जाप जपने में लग जाते हैं। यह बात सुनते ही मन में विचार होने लगा, इतने बड़े महापुरुष की जिनेन्द्र आराधना अवश्य कार्य करेगी।"
            ? धर्म के पक्ष में निर्णय ?
               लगभग १५ मिनिट के बाद न्यायाधीश आए, और मामला पुनः प्रारम्भ हो गया। बकीलो द्वारा अपने पक्ष रखे गए, न्यायाधीश द्वारा भी बहुत से सवाल हुए। 
                लेकिन जब निर्णय आया तो सुनते ही सबको आश्चर्य हुआ। कानून के विशेषज्ञ चकित हुए कि जहाँ मामले में पराजय की स्थिति थी, वहाँ धर्मपक्ष की पूर्णतः विजय हो गई। धार्मिक जैन समाज के हर्ष की सीमा न थी। 
              आचार्य महाराज को केस की सफलता का तार भेज दिया गया। २४ जुलाई की रात्रि को बम्बई के श्री चन्द्रप्रभ विद्यालय में सभा हुई। हमने कहा था कि "इस महान कार्य की सफलता के मुख्य कारण रत्नत्रय मूर्ति आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज हैं।
               ?अकम्पन ऋषि?
                 हमने यथा उपस्थित मण्डली ने महाराज से विनय की- "महाराज, सेवा करने वाला काम पूरा करने पर अपनी मज़दूरी माँगता हूँ। मजदूरी यही है कि आप अन्न  ग्रहण करें।"
      
                   महाराज बोले- "यह बच्चों का खेल नहीं है। अभी हम हाईकोर्ट का सील लगा लिफाफा देखेंगे और विचारेंगे। सुप्रीम कोर्ट की अपील की अवधि को भी समाप्त होने दो।"

     ?१६ अगस्त सन् १९५१ का रक्षाबंधन?

         सभी लोगों ने गुरुचरणों में पहुँचकर प्रार्थना व् अत्यधिक आग्रह किया।
            तब महाराज ने कहा- "हमे अपनी तो फिकर नहीं है, किन्तु हमारे निमित्त से जो हजारों व्यक्तियों ने जो त्याग कर रखा है, उनका विचार कर हम कल आहार कर लेंगे।" यह बात ता. १५ अगस्त को ज्ञात कर बारामती के भाइयों को अपार हर्ष हुआ।"

    ? पन्द्रहवां दिन - २८ अगस्त १९५५ ?
                 आज पूज्यश्री ने जल ग्रहण किया। दोनों समय जनता को दर्शन दिए। विशेष बात यह हुई कि आचार्यश्री के संघ में सात वर्ष से साथ रहने वाले ब्र. भरमप्पा को क्षुल्लक दीक्षा दी गई। उनका नाम सिद्धसागर रखा गया। दीक्षा विधि आचार्यश्री के निर्देशानुसार १०५ क्षुल्लक श्री सुमतिसागर ने कराई। अंत में आचार्यश्री ने शुभाशीर्वाद दिया।
    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  12. Abhishek Jain
    ☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,
                 जिस तरह वर्तमान में हमारे धर्म पर सल्लेखना पर रोक के रूप में बहुत बड़ा संकट आया है उसी तरह सन् १९४७ में भी बम्बई कानून के माध्यम से एक बहुत बड़ा संकट जैन धर्म पर आया था। जिस तरह वर्तमान के संकट की तीव्रता का बोध हमारे साधू परमेष्ठी करा रहे है उसी तरह तत्कालीन श्रावको को पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने संकट की भयावहता से अवगत कराया।
              धर्मरक्षा पर्व रक्षाबंधन विष्णुकुमार मुनि द्वारा सात सौ मुनियों के उपसर्ग दूर करने के साथ प्रारम्भ हुआ था उसी तरह वर्तमान में भी धर्मरक्षा से सम्बंधित एक महत्वपूर्ण प्रसंग को मै आप सभी को स्मरण दिलाना चाहता है। पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने भी जैनधर्म की एक बड़े संकट से रक्षा के उपरांत, लंबे समय से धर्मरक्षा हेतु त्यागे गए अन्न को रक्षाबंधन की शुभ तिथि से ही पुनः ग्रहण किया था।
                   रक्षाबंधन आ रहा है, प्रसंगवश जनजागृति हेतु सल्लेखना प्रसंगों के मध्य आप सभी को धर्मरक्षा के इन प्रसंगों से अवगत कराया जा रहा है।
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - १०२     ?

                         "भीष्म प्रतिज्ञा"
             
                    बम्बई सरकार ने सन् १९४७ में एक कानून बनाया। इस नियम ने अनेक उपद्रव उत्पन्न होने के योग्य वातावरण उत्पन्न कर दिया। इस कानून का वास्तविक कोई उपयोग नहीं था, किन्तु सुधार के जोश में जैनियों पर भी लादा गया था।
                         सर्वपरिस्थिति का पर्यालोचन कर अत्यंत अनुभवी आचार्य महाराज ने सोचा, अंतरात्मा ने उन्हें कड़े कदम उठाने की प्रेरणा की। उन्हें यह प्रतीत हुआ कि यदि चुपचाप बैठे रहे, तो अत्याचारी लोग प्रत्येक जैन मंदिर में प्रवेशाधिकार के नाम पर घुसेंगे और अवसर पड़ने पर महत्वपूर्ण जिनमंदिरों को हजम कर लेंगे। उन्होंने किसी से परामर्श नहीं किया।
                    इन लोकोत्तर महात्मा ने जिनेन्द्र भगवान को साक्षी करके प्रतिज्ञा कर ली कि  "जब तक पूर्वोक्ति बम्बई कानून से आई हुई विपत्ति जैनधर्म के आयतनों-जिन मंदिरों से दूर नहीं होती है, तब तक मै अन्न नहीं ग्रहण करूँगा।"
               इस समाचार ने देशभर में फैलकर जैन समाज मात्र को चिंता के सागर में डूबा दिया। फलटण से हमारे पास तार से समाचार आने पर आँखों के सामने अँधेरा छा गया। शीघ्र ही बम्बई में अगस्त सन् १९४८ के अंतिम सप्ताह में प्रमुख जैन बंधुओ की एक बैठक हिराबाग़ की धर्मशाला में हुई। इसके अनंतर सर सेठ भागचंदजी सोनी आदि के साथ हम महाराज के पास फलटण पहुँचे।
             सबने महाराज से प्रार्थना की कि राजनीति का यंत्र मंद गति से चलता है। कायदे की बात का सुधार वैधानिक पद्धति से ही होगा। यह बात बहुत समयसाध्य है। अतः आप अन्य ग्रहण कीजिए। सारा समाज आपकी इच्छानुसार उद्योग करेगा।
               महाराज ने कहा- "हमने जिनेन्द्र भगवान के सामने जो प्रतिज्ञा ली है क्या उसे भंग कर दें?" हम सब लोग चुप हो गए। उस समय हजारों व्यक्तियों ने महाराज की प्रतिज्ञा पूर्ति पर्यन्त अनेक संयम संबंधी नियम लिए। 
                 जो लोग यह सोचते थे कि मुनियों को राजनीति में ना पड़कर आत्म-हित करना चाहिए, उनको महाराज कहते थे-
                जैनधर्म के मुख्य अंग जैनमंदिर के संरक्षण निमित्त उद्योग करना हमारा कर्तव्य है, क्योंकि इस विषय में गृहस्थ लोग चुप होकर बैठ गए। धर्म पर राजनीति का हस्तक्षेप कैसे उचित कहा जा सकता है। शासन सत्ता का धर्म पर आक्रमण ना रोका जाय, तो भविष्य में बड़ी विपत्ति आये बिना ना रहेगी।"

    ?  चौदहवां दिन - २७ अगस्त १९५५ ?
                     आज पूज्यश्री ने जल ग्रहण किया। अभिषेक के समय व् दोपहर के समय में भी आचार्यश्री ने उपस्थित जनता को दर्शन देकर जनता को शुभाशीर्वाद दिया।
                        विशेष बात यह रही कि गुफा में जब आचार्यश्री विराजमान थे तब उपस्थित लोगों ने निवेदन किया कि महाराज कुछ बांचकर सुनायें? तब आचार्यश्री ने उत्तर दिया कि मै स्वयं जाग्रत हूँ, मुझे किसी की अपेक्षा नहीं है, अपनी आत्मा के ध्यान मे ही मग्न रहता हूँ।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  13. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - १०१     ?

         "वीरसागरजी को आचार्य पद का दान"

                       ता. २६ शुक्रवार को आचार्य महाराज ने वीरसागर महाराज को आचार्य पद प्रदान किया। उसका प्रारूप आचार्यश्री के भावानुसार मैंने(लेखक ने) लिखा था। भट्टारक लक्ष्मीसेनजी, कोल्हापुर आदि के प्रमार्शनुसार उसमें यथोचित परिवर्तन हुआ।
                अंत में पुनः आचार्य महाराज को बांचकर सुनाया, तब उन्होंने कुछ मार्मिक संशोधन कराए।
                 उनका एक वाक्य बड़ा विचारपूर्ण था- "हम स्वयं के संतोष से अपने प्रथम निर्ग्रन्थ शिष्य वीरसागर को आचार्य पद देते हैं।"
           ?मुनि वीरसागर को सन्देश ?
               आचार्य महाराज ने वीरसागर महाराज को यह महत्वपूर्ण सन्देश भेजा था- "आगम के अनुसार प्रवृत्ति करना और सुयोग्य शिष्य को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करना, जिससे परम्परा बराबर चले। "
                 उन्होंने यह भी कहा था- "वीरसागर बहुत दूर है यहाँ नही आ सकता अन्यथा यहाँ बुलाकर आचार्यपद देते।" उनके ये शब्द महत्व के थे, वीरसागर को हमारा आशीर्वाद कहना और कहना कि शांतभाव रखे; शोक करने की जरुरत नहीं है।"
                   उस समय महराज का एक-एक शब्द अनमोल था। वे बड़ी मार्मिक बातें कहते थे। क्षुल्लक सिद्धसागर को महाराज ने कहा था- "रेल मोटर से मत जाना।" इस आदेश के प्रकाश में उच्च त्यागी अपना कल्याण सोच सकते हैं, कर्तव्य जान सकते हैं।
                शिष्यों को व्रत ग्रहण करने की प्रेरणा करते हुए वे बोले- "स्वर्ग में आओगे, तो हमारे साथी रहोगे।"

    ? तेरहवाँ दिन - २६ अगस्त १९५५ ?

                          आज पूज्यश्री ने जल ग्रहण किया। दोनों समय जनता को दर्शन व् शुभाशीर्वाद दिया। आज दिन महासभा के महामंत्री दर्शनार्थ आये।
                    विशेष बात यह हुई कि तीन हजार जनता के समक्ष आचार्यश्री ने क्षमाभाव ग्रहण किया और कहा कि वे सब पुरानी बातों को भूल गये हैं व् यह भी चाहतें हैं कि प्राणीमात्र उनको क्षमा करे।
                 आचार्यश्री ने इस समय महासभा को भी याद किया। महासभा के लिए कोई सन्देश देने की प्रार्थना की तो उन्होंने कहा- महासभा सदैव की तरह धर्मरक्षा में सदा कटिबद्ध रहे, धर्म को कभी न भूले और धर्म के विरुद्ध कोई भी कार्य न करे।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  14. Abhishek Jain
    ☀जय जिनेन्द्र बन्धुओं,
               आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के जीवन चरित्र का यह प्रसंग सूक्ष्मता से अवलोकन करने पर ज्ञात होगा कि यह प्रसंग सल्लेखना प्राप्ति की पवित्र भावना के साथ धर्म-ध्यान करने वाले हर एक श्रावक के लिए योग्य मार्गदर्शन है।
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - १००     ?

                  "जलग्रहण का रहस्य"

             आचार्य महाराज ने यम सल्लेखना लेते समय केवल जल लेने की छूट रखी थी। इस सम्बन्ध में मैंने कहा - "महराज ! यह जल की छूट रखने का आपका कार्य बहुत महत्व का है। वास्तव में आपने विवेकपूर्ण कार्य किया है। आपके जीवन भर के कार्यों में हमें विवेकपूर्ण प्रवृत्ति का ही दर्शन होता रहा है:
           गौतम स्वामी ने जिनेन्द्र से पूंछा था- "भगवन ऐसा उपाय बताइये कि जिससे पापों का भार ना उठाना पड़े।"
           भगवान का कहना था- "विवेकपूर्वक कार्य करो जिससे पापों का बंध नहीं होगा।"
         यह सुनकर महराज बोले- "हमने देखा है, जल नहीं ग्रहण करने के कारण आठ दस त्यागियों की बुरी हालत हुई है अतः हमने जल का त्याग नहीं किया है।"
            उन्होंने यह भी कहा था- "हमने पानी लेने की छूट भी इसलिए रखी है, कि इससे दूसरे त्यागी भाइयों को मार्गदर्शन होता रहे। नहीं तो हमारा अनुकरण करने पर बहुतों की असमाधि हो जावेगी।"

    ?  १२ वां दिन - २५ अगस्त १९५५ ?

             आज पूज्यश्री ने जल ग्रहण किया। दोनों समय दर्शन देकर जनता को कृतार्थ किया। आज दर्शन देने के पश्चात् दिल्ली से पं. शिखरचंदजी (मैनेजर) महासभा, लाला ऋखवदासजी, रामसिहजी (खेकड़ा वाले) आदि दर्शनार्थ पधारे।
        श्री पं. सुमेरचंदजी दिवाकर न्यायतीर्थ बी.ए., एल.एल.बी., सिवनी, पं. इंद्रलालजी शास्त्री जयपुर, पं. मख्खनलालजी दिल्ली, भट्टारक जिनसेनजी के प्रवचन हुए।

    ?  स्वाध्याय चरित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
    ☀आज हर्ष का विषय है कि आज पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के जीवन के प्रसंगों की प्रस्तुती का १०० वां प्रसंग है। यह सब आपकी रूचि का ही प्रतिफल है।
            सभी की रूचि के आधार पर हमारे सभी महापुरुषों के जीवनचरित्र को प्रकाशित करने वाली यह श्रृंखला लगातार चलती रहेगी। जो इन प्रसंगों को प्राप्त ना करना चाहते हों या प्राप्त करना चाहते हो तो 9321148908 पर whatsup के माध्यम से संपर्क करें।
  15. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - ९९     ?

                   "सप्तम प्रतिमा धारणा"

                           कल के प्रसंग में हमने देखा कि बाबूलाल मार्ले कोल्हापुर वालों ने पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज का कमंडल पकड़ने हेतु भविष्य में क्षुल्लक दीक्षा लेने की भावना व्यक्त की।
                     बाबूलाल मार्ले ने महाराज का कमण्डलु उठा लिया, तब महाराज बोले- "देखो ! क्षण भर का भरोसा नहीं है। कल क्या हो जायेगा यह कौन जानता है। तुम आगे दीक्षा लोगे यह ठीक है किन्तु बताओ ! अभी क्या लेते हो।"
                   उक्त व्यक्ति की अच्छी होनहार होने से उसने कह दिया- "महाराज, "मै सप्तम प्रतिमा लेता हूँ।"
                   महाराज ने कहा- " "अच्छा" । उन्होंने महाराज के चरणों को प्रणाम किया। महाराज ने पिच्छी सर पर रखकर अपना पवित्र आशीर्वाद दिया। छोटे से विनोद का इतना मधुर पवित्र परिपाक हुआ। एक व्यक्ति धन-वैभव के होते हुए भी गुरुदेव के प्रसाद से ब्रम्हाव्रती हो गया।

    ?  ग्यारहवाँ दिन - २४ अगस्त १९५५  ?

                          पूज्यश्री ने आज जल ग्रहण किया। दोनों समय जनता को दर्शन दिए। देहली से लाला महावीरप्रसादजी ठेकेदार, रतनलाल जी मदिपुरिया, लाला उफतरायजी, रधुवीर सिंह जी जैना वाच वाले, ब्र. इंद्रलालजी शास्त्री जयपुर, ब्र. सूरजमलजी, ब्र. पं. श्रीलाल जी दर्शनार्थ पधारे।
                  आज क्षुल्लकों की संख्या १२, क्षुल्लिकाऐ ५ और ब्रम्हचारी १५ हो गये। सल्लेखना के समय शास्त्रानुसार दिगंबर यति आचार्य पद छोड़ देते हैं, अतः आचार्यश्री ने भी तदनुसार आचार्य पद त्याग करने की धोषणा की और अपने प्रथम शिष्य श्री १०८ वीरसागरजी महाराज को आचार्य घोषित किया। 
                   चूँकि १०८ वीरसागर जी महाराज इस अवसर पर जयपुर में विराजमान थे, अतः घोषणापत्र लिखवाकर उनके पास भिजवाया गया। आज दर्शनार्थियों की संख्या ३००० से अधिक थी।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  16. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - ९८     ?

             "विनोद में संयम की प्रेरणा"

                   कोल्हापुर के एक भक्त की कल्याणदायिनी मधुर वार्ता है। उनका नाम बाबूलाल मार्ले है। संपन्न होते हुए संयम पालना और संयमीयों की सेवा-भक्ति करना उनका व्रत है। वे दो प्रतिमाधारी थे। 
                       वारसी से महाराज कुंथलगिरि को आते थे। महाराज का कमण्डलु उठाने लगे, तो महाराज ने कह दिया- "तुम हमारे कमण्डलु को हाथ मत लगाना। उसे मत उठाओ।" ये शब्द सुनते ही मार्ले चकित हुए।
                    महाराज कहने लगे- "यदि दीक्षा लेने की प्रतिज्ञा करने का इरादा हो, तो कमण्डलु लेना, नहीं तो हम अपना कमण्डलु खुद उठाएंगे।"
                  वे भाई विचार में पड़ गए। महाराज के पवित्र व्यक्तित्व ने उस आत्मा के अंतःकरण पर प्रभाव डाला। वे बोले- "महाराज ! कुछ वर्षो के बाद अवश्यमेव मै क्षुल्लक की दीक्षा लूँगा। महाराज को संतोष हुआ।
               ?कुतर्क का समाधान?
         
                       यहाँ कोई यह कुतर्क कर सकता है, कि महाराज का ऐसा आग्रह करना अच्छा नहीं लगता। जिनको संयम और व्रत लेना होगा, वे स्वयं लेंगे। ऐसी प्रेरणा यथा आग्रह ठीक नहीं है।
                      शांतभाव से विचार करने पर विदित होगा कि सन्मार्ग पर चलने के हेतु जीव को प्रेरणा देना आवश्यक है। पतन की ओर किसी को उपदेश की जरुरत नहीं पड़ती है।
                      जल की धारा स्वतः नीचे की ओर जाती है, उसे ऊँचा उठाने के लिए और ऊपर की भूमि पर पहुँचाने के लिए विशेष बल तथा शक्ति की आवश्यकता पड़ा करती है। यही हाल जीव की परिणति का है। उसे उर्ध्वमुखी बनाने के लिए सतप्रयत्न तथा उद्योग अत्यंत आवश्यक है। इस कारण से वे सदा धर्मोपदेश दिया करते थे।
    ?   १० वां दिन - २३ अगस्त १९५५   ?
                            आज जल ग्रहण किया। दोनों समय जनता को दर्शन देकर कृतकृत्य किया। दर्शनार्थियों का तांता लग गया। दूर-दूर से जनता उमड़ पड़ी।
    ?    स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती का    ?
  17. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - ९७     ?

              "जनगौड़ा पाटील को देशना"

                        कुंथलगिरि में पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के गृहस्थ जीवन के छोटे भाई कुमगोंडा पाटील के चिरंजीव श्री जनदौड़ा पाटील जयसिंगपुर से सपरिवार आए थे। आचार्य महाराज के चरणों को उन्होंने प्रणाम किया। 
                     बाल्यकाल में जनगौड़ा आचार्य महराज की गोद में खूब खेल चुके थे, जब महाराज शान्तिसागरजी सातगौड़ा पाटील थे। उस समय का स्नेह दूसरे प्रकार का था, अब का स्नेह वीतरागता की ओर ले जाने वाला था।
                      जनगोंडा को महाराज ने कहा- "देखो ! हमने यम समाधि ली है और हम अब शीघ्र जाने वाले हैं। तुमको भी संयम धारण करना चाहिए। इसके सिवाय जीव का हित नहीं है।"
                   जनगौड़ा ने कहा था- "महाराज क्या करूँ ? जो आज्ञा हो वह करने को तैयार हूँ।
                  महाराज बोले- "तुमको हमारी तरह ही दीक्षा धारण करना चाहिए। इससे अधिक आनंद व् शांति का दूसरा मार्ग नहीं है।"
               जनगोंडा ने कहा था- "महाराज ! कुछ वर्षों की साधना के पश्चात् मुनि बनने की मै प्रतिज्ञा करना हूँ।"
               पश्चात् महाराज ने जनगोंडा की स्त्री लक्ष्मीदेवी को बुलाकर पूंछा था- "यदि यह मुनि बनता है तो तुमको कोई आपत्ति तो नहीं है?"
                  वह महिला बोली- "महाराज ! कल के बदले यदि वे आज ही मुनि बनना चाहें, तो मेरी ओर से कोई भी रोक-टोक नहीं है।" यह बात सुनकर उन क्षपकराज को बहुत शांति मिली। महाराज ने उन बाई को व्रत प्रतिमा दी। क्षण भर में वे दंपत्ति व्रती श्रावक बन गए।
    ?   ९ वाँ दिन  - २२ अगस्त १९५५   ?
                      आज भी पूज्यश्री ने जल ग्रहण नहीं किया। आचार्यश्री की उपस्थिति में श्री भट्टारक लक्ष्मीसेन की अध्यक्षता में आचार्य शान्तिसागर जिनवाणी जीर्णोधारक संस्था के मंत्री श्री बालचंदजी देवचंदजी शहा, बी.ए सोलापूर को मानपत्र समर्पित किया गया। आचार्यश्री ने उनको आशीर्वाद दिया।
    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  18. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - ९६     ?
                    "कथनी और करनी"
        
                   पंडितजी ने कहा- "महाराज ! आपके समीप बैठकर ऐसा लगता है कि हम जीवित समयसार के पास बैठे हों। आप आत्मा और शरीर को ना केवल भिन्न मानते हैं तथा कहते हैं किन्तु प्रवृत्ति भी उसी प्रकार कर रहे हैं। शरीर आत्मा से भिन्न है। वह अपना मूल स्वभाव नहीं है, परभाव रूप है, फिर खिलाने-पिलाने आदि का व्यर्थ क्यों प्रयत्न किया जाय? यथार्थ में आपकी आत्म प्रवृत्ति अलौकिक है।"
               महाराज बोले- "आत्मा को भिन्न बोलना और विषयों में लगना कैसे आत्मचिंतन है? शरीर से आत्मा भिन्न है, अतः आत्मा का ही चिंतन करना ठीक है। शरीर की क्या बात है? वह तो पर ही है। उसकी सेवा या चिंता क्यों करना? उसका क्यों ध्यान करना? देखो ! आत्मा के ध्यान से कर्मों का नाश होता है।"
    ?  आठवां दिन - २१ अगस्त १९५५  ?

                  आज भी जल ग्रहण नहीं किया। विशेष बात यह हुई कि आचार्यश्री के गृहस्थ जीवन के भतीजे ने आजन्म ब्रम्हचर्य व्रत ग्रहण किया।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  19. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - ९४     ?

                    "विचारपूर्ण प्रवृत्ति"
                 
                        बात उस समय की है जब आचार्य महाराज का कवलाना में दूसरी बार चातुर्मास हो रहा था। अन्य परित्याग के कारण उनका शरीर बहुत आशक्त हो गया था। उस समय उनकी देहस्थिति चिन्ताप्रद होती जा रही थी। एक दिन महाराज आहार के लिए नहीं निकल रहे थे। मै उनके चरणों में पहुँचा।
                         महाराज बोले- "आज हमारा इरादा आहार लेने का नहीं हो रहा है।"
                         मैंने प्रार्थना की- "महाराज ! ऐसा न कीजिए। शरीर कमजोर है। चर्या को अवश्य निकलिए। यदि शरीर को थोडा जल भी मिल जायेगा, तो ठीक रहेगा। यह शरीर रत्नत्रय साधन में सहायता देता है, इसलिए इसके रक्षण का उचित ध्यान आवश्यक है।"
                     मेरे आग्रह करने पर महाराज ने विचार बदल दिया और क्षण भर में वे चर्या को निकल गये थे। कुंद-कुंद स्वामी ने रयणसार में कहा है:
                   शरीर अनेक दुखों का भण्डार है। कर्मबंध का कारण है, आत्मा से भिन्न है। उस शरीर का साधु धर्मानुष्ठान का निमित्त कारण होने से इसे आहार ग्रहण द्वारा पोषण प्रदान करते है।
                इस आगम के प्रकाश में क्षीण शरीर आचार्य महाराज का आहार हेतु जाना पूर्णतया उपयुक्त था।

    ?   छठवाँ दिन - १९ अगस्त १९५५   ?

                         आचार्यश्री ने आज भी जल ग्रहण नहीं किया व् सारा समय आत्म चिंतन, मनन एवं ध्यान में व्यतीत किया।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  20. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - ९३     ?

            "गुणग्राहिता का सुन्दर उदाहरण"

                        एक बार एक छोटी बालिका गुरुदेव के दर्शन हेतु आई थी। उससे पूंछा गया- "बेटी ! तू किसकी ?"
                      वह चुप रही। तब पूछा, 'तू काय आई ची आहेस (तू क्या माता कि है)?' उसने कहा- "नहीं।" फिर कहा- "बापाची (क्या पिता की है) ?" उसने फिर नहीं कहा।
                    फिर पूंछा- "किसकी है ?" उसने कहा, "मी माझी (मै अपनी हूँ।)"
                    यह सुनते ही आचार्यश्री बहुत आनन्दित हो बोले- "इस बेटी ने मुझे समयसार सिखाया। वास्तव में यह जीव दूसरे का नहीं है, यह स्वयं अपना है।"
                     
    ?   पाँचवां दिन - १८ अगस्त १९५५   ?

                        आज भी आचार्यश्री ने जल ग्रहण नहीं किया। प्रातः काल अभिषेक के समय मध्यान्ह में आचार्यश्री बाहर पधारे और जनता को दर्शनों का लाभ कराया। सारा समय आत्मध्यान में व्यतीत किया।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  21. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - ९२     ?

                "सल्लेखना का निश्चय"

                  पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने सल्लेखना करने का निश्चय गजपंथा में ही सन् १९५१ में किया था; किन्तु यम सल्लेखना को कार्यरूपता कुंथलगिरि में प्राप्त हुई थी। महाराज ने सन् १९५२ में बरामति चातुर्मास के समय पर्युषण में मुझसे कहा था कि- "हमने गजपंथा में द्वादशवर्ष वाली सल्लेखना का उत्कृष्ट नियम ले लिया है। अभी तक हमने यह बात जाहिर नहीं की थी। तुमसे कह रहे हैं। इसे तुम दूसरों को भी कहना चाहो, तो कह सकते हो।" इसके बाद से महाराज की संयम साधना, उपवास आदि बड़े उग्र रूप से हो चले थे।
                   सन् १९५३ में अर्थात सल्लेखना से दो वर्ष पूर्व कुंथलगिरि में उनका चातुर्मास था, तब उनके उपवास बृहत रूप से चल रहे थे। मै व्रतों में पहुँचता हूँ तो क्या देखता हूँ कि पंचमी से महाराज ने पाँच दिन का उपवास व् मौन का नियम कर लिया है।
                      पाँच दिन पश्चात् महाराज ने आहार किया और पुनः पाँच उपवास की प्रतिज्ञा कर ली; किन्तु उस समय उन्होंने मौन नहीं लिया।
                        महाराज ने तपस्या का कारण समाधिमरण की तैयारी बताया था। इसके पश्चात् मैंने 'भगवती आराधना' ग्रन्थ को ध्यान पूर्वक पढ़ा, तब ज्ञात हुआ, कि आचार्य महाराज की नैसर्गिक प्रवृत्ति पूर्णतः शास्त्र संगत रही थी। उनकी चर्या को देखकर शास्त्र के कठिन प्रश्नों का समाधान प्राप्त होता था।
    ?   चतुर्थ दिन - १७ अगस्त १९५५   ?
                         महाराज ने आज के दिन में तीन बजे सिर्फ जल को छोड़कर आमरण सल्लेखना ग्रहण की। इस अवसर पर संघपति सेठ गेंदनमलजी बम्बई, रावजी देवचंदजी सोलापूर, गुरुभक्त सेठ चंदूलालजी सराफ बरामती, सेठ मानिकचंद वीरचंदजी मंत्री कुंथलगिरि सिद्ध क्षेत्र आदि उपस्थित थे।
                     त्यागी वर्ग में श्री १०५ क्षुल्लक विमलसागरजी, क्षुल्लक सुमतिसागरजी, श्री भट्टारक जिनसेनजी म्हसाल, ब्रम्हचारी भरमप्पा तथा आर्यिकाएँ उपस्थित थी। आचार्यश्री इस दिन पहाड़ के ऊपर मंदिर जी में पहुँच गए।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  22. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - ९१     ?

                    "शरीर में भेद-बुद्धि"
             
                        एक बार पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने मुझसे पूंछा था- "क्यों पंडितजी चूल्हें में आग जलने से तुम्हे कष्ट होता है या नहीं ?
                 मैंने कहा- "महाराज ! उससे हमे क्या बाधा होगी। हम तो चूल्हे से पृथक हैं।"
                 महाराज बोले- "इसी प्रकार हमारे शरीर में रोग आदि होने पर भी हमे कोई बाधा नहीं होती है"
                  यथार्थ में पूज्यश्री गृहस्थ जीवन में अपने घर में पाहुने (मेहमान) सदृश रहते थे, और अहिंसा महाव्रती निर्ग्रंथराज बनने पर तो वे इस शरीर के भीतर ही पाहुने सदृश हो गए थे।
                   जब देह अपना नहीं है, उसका गुण, धर्म आत्मा से पृथक है तब देह अपना नहीं है, तब देह के अनुकूल या विपरीत परिणाम होने पर सम्यकज्ञानी सतपुरुष क्यों राग या द्वेष धारण करेगा?
                      यह तत्त्व बौद्धिक स्तर पर तो प्रत्येक विचारक के चित्त में जंच जाता है, किन्तु अनुभूति की दृष्टि से जब तक सम्यकदर्शन अंतःकरण में आविर्भूत नहीं होता है, और चरित्रमोह मंद नहीं होता है, तब तक इस जीव की प्रव्रत्ति नहीं होती है। सम्यक्त्व की बातें करने वाले हजारों मिल जाएँगे। बातें बनाने में क्या कुछ लगता है।
    ?   तृतीय दिन - १६ अगस्त १९५५   ?

                   पूज्य आचार्यश्री ने आज भी जल नहीं लिया। आज उन्होंने भक्तों को दर्शन दिया व् शेष समय आत्मचिंतन, मनन व् ध्यान में बिताया।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  23. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - ९०     ?

                      "पूर्ण स्वावलंबी"
       
                            मैंने (लेखक ने) २४ अगस्त के प्रभात में पर्वत पर  कुटी  में  आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के दर्शन किये  और  नमोस्तु निवेदन किया। महाराज बोले, "बहुत देर में आये। आ गए, यह बहुत अच्छा किया। बहुत अच्छा हुआ तुम आ गए। बहुत अच्छा किया।" इस प्रकार चार बार पूज्यश्री के शब्दों को सुनकर स्पष्ट  हुआ  कि उन श्रेष्ट साधुराज के पवित्र    अंतःकरण में मेरे  प्रति करुणापूर्ण स्थान अवश्य है।
                    मैंने कहा- "महाराज ! श्रेष्ट तपस्यारूप यम् समाधि का महान निश्चय करके आपने जगत को चमत्कृत कर दिया है। आपका अनुपम सौभाग्य है। इस समय मै आपकी सेवार्थ आया हूँ। शास्त्र सुनाने की आज्ञा हो या स्त्रोत पढ़ने आदि का आदेश हो, तो मै सेवा करने को तैयार हूँ।"
                  महाराज बोले- "अब हमें शास्त्र नहीं चाहिए। जीवन भर सर्व शास्त्र सुने । खूब सुने, खूब पढ़े। इतने शास्त्र सुने की कंठ भर चूका है। अब हमें शास्त्रों की जरुरत नहीं है। हमें आत्मा का चिन्तवन करना है। मै इस विषय में स्वयं सावधान हूँ। हमे कोई भी सहायता नहीं चाहिए।"
                  महाराज की वीतराग भाव पूर्ण वाणी को सुन मन बड़ा संतुष्ट हुआ। सचमुच में जिस महापुरुष के ये वाक्य हों 'शास्त्र ह्रदय में भरा है', उन्हें ग्रन्थ के अवलम्बन की क्या आवश्यकता है ? उन्होंने शास्त्र पढ़कर उस रूप स्वयं का जीवन बनाया था। उनका जीवन ही शास्त्र सदृश था।
    ?   द्वितीय दिन - १५ अगस्त १९५५  ?
                 आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने द्वितीय दिन जल नहीं लिया। मध्यान्ह उपरांत तीन बजे शान्तिसागर दिगम्बर जैन जिनवाणी जिर्णोद्धारक संस्था, बम्बई की ओर से ताम्र पत्रों पर उत्कीर्ण श्री धवल, जय धवल, एवं महा धवल सिद्धांत ग्रन्थ आचार्यश्री को समर्पित किये गए।
                    महाराज की आज्ञानुसार फलटण (महा)द्वारा प्रकाशित रत्नकरण्ड श्रावकाचार महाराज को भेंट किया गया। इस अवसर पर महाराज ने श्रुतोद्धार के ऊपर मार्मिक प्रवचन दिया।
    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  24. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - ८९     ?

                      "यम सल्लेखना"
             
                आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के चरणों के समीप रहने से मन में ऐसा विश्वास जम गया था, कि आचार्य महाराज जब भी सल्लेखना स्वीकार करेंगे तब नियम सल्लेखना लेंगे, यम सल्लेखना नहीं लेंगे। 
                 ऐसे ही उनका मनोगत अनेक बार ज्ञात हुआ था। मुझे यह विश्वास था कि, उनकी सल्लेखना नियम सल्लेखना के रूप में प्रारम्भ होगी किन्तु भविष्य का रूप किसे विदित था ? 
                     जिसकी स्वप्न में भी कल्पना न थी, वह साक्षात् हो गया। श्रवणराज आचार्य शान्तिसागरजी महाराज ने यम सल्लेखना ले ली। उसे लिए चार दिन हो गए। कुंथलगिरि से भी मुझे समाचार नहीं मिला।
              २२ अगस्त १९५५ को १ बजे मध्यान्ह में फलटण से इंद्रराज गांधी का तार मिला : 
    -Acharya maharaj started Yama sallekhana from four days, starte first train kunthalgiri-
    ('आचार्य महाराज ने चार दिन हुए यम सल्लेखना ले ली है। शीघ्र ट्रेन से कुंथलगिरि पहुंचिए।')
                    मै अवाक हो गया। चित्त घबरा गया। अकल्पित बात हो गई। तत्काल ही मैंने गुरुदेव के दर्शनार्थ प्रस्थान किया।
                      मैं २२ अगस्त को १२ बजे दिन की मोटर से नागपुर ७.३० बजे रात को पहुँचा वहाँ रेल से शेगाँव गया। पश्चात् मोटर से देवलगाँव, बागरुल, जालना होते हुए तारीख २३ की रात को १० बजे कुंथलगिरि पहुँचा। 
               उस समय मूसलाधार वर्षा हो रही थी। एक घंटा स्थान पाने की परेशानी के उपरांत मुझ अकेले को स्थान मिल पाया।
    ?    प्रथम दिन- १४ अगस्त १९५५    ?
                   आचार्यश्री ने प्रातः नौ बजे आहार में बादाम का पानी ग्रहण किया और तदनंतर उपस्थित जनता के सम्मुख एक सप्ताह की नियम सल्लेखना धारण करने की घोषणा की। महाराज को अंतिम आहार देने का श्रेय बारामती के गुरु-भक्त सेठ चंदूलाल सराफ को प्राप्त हुआ।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  25. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - ८८     ?

        "सल्लेखना के लिए मानसिक तैयारी"

                        यम सल्लेखना लेने के दो माह पूर्व से ही पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के मन में शरीर के प्रति गहरी विरक्ति का भाव प्रवर्धमान हो रहा था। 
                इसका स्पष्ट पता इस घटना से होता है। कुंथलगिरि आते समय एक गुरुभक्त ने महाराज की पीठ दाद रोग को देखा। उस रोग से उनकी पीठ और कमर का भाग विशेष व्याप्त था।
             भक्त ने कहा- "महाराज ! इस दाद की दवाई क्यों नहीं करते ? दवा लगाने से यह दूर हो जाएगी।"
              महाराज बोले- "अरे ! इसमें बहुत दवाई लगाई गई। तेजाब तक लगाया गया; किन्तु यह बीमारी हमारा पिण्ड नहीं छोड़ती है। हमारे पास एक दवाई है, उसे लगायेंगे तो यह रोग नष्ट हो जाएगा और शरीर रोगमुक्त हो जाएगा।
                भक्त बोला- "अभी दवा क्यों नहीं लगाते ? आगे लगावेंगे, ऐसा क्यों कहते हैं ? बताइये, कौन दवा है ? मै लगा दूँगा।"
                    महाराज बोले- "अरे ! वह दवा तू नहीं जानता। मै उसे दो माह में लगाकर इस शरीर को पूरा ठीक कर दूँगा।

    ?  स्वाध्याय चरित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
    ☀आज से पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज की सल्लेखना के प्रसंग प्रेषित किये जा रहें हैं। सभी अवश्य पढ़ें। 
            आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज जैसे महान तपस्वी मुनिराज की जीवन भर की घोर साधना का निचोड़ उनकी सल्लेखना के प्रसंगों को पढ़कर हम उनकी साधना को समीप से अनुभव कर पाएँगे। इसका पूर्ण लाभ "चरित्र चक्रवर्ती" ग्रन्थ को पढ़कर लिया जा सकता है। उसको हर श्रावक को पढ़ना ही चाहिए। 
              पंडित श्री सुमेरचंद जी दिवाकर जी ने इतनी सुन्दर शैली में पूज्य श्री के जीवन को अभिव्यक्त किया है हम सभी श्रावकगण भी उनके बहुत ही आभारी हैं।
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