![Abhishek Jain](http://jain-samaj.s3.amazonaws.com/monthly_2016_04/abhi.jpg.8e6bc34e9bdf018b407c0ff179a2edb5.thumb.jpg.35cd7488e1777b3826f9231d63c27984.jpg)
"आगम का सार"
पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने सल्लेखना के२६ वे दिन के अमर सन्देश में कहा था- "जीव एकला आहे, एकला आहे ! जीवाचा कोणी नांही रे बाबा ! कोणी नाही.(जीव अकेला है,अकेला है। जीव का कोई नहीं बाबा, कोई नहीं है।)"
इसके सिवाय गुरुदेव के ये बोल अनमोल रहे- "जीवाचा पक्ष घेतला तर पुद्गलाचा घात होतो। पुद्गलाचा पक्ष घेतला तर जीवाचा घात होतो। परंतु मोक्षचा जाणारा जीव हा एकलाच आहे पुद्गल नहीं( जीव का पक्ष ग्रहण करने पर पुद्गल का घात होता है, पुद्गल का पक्ष ग्रहण करो, तो आत्मा का घात होता है, परंतु मोक्ष को जाने वाला जीव अकेला ही है, पुद्गल के साथ मोक्ष नहीं जाता है।)"
अग्नि में तपाया गया सुवर्ण जिस प्रकार परिशुद्ध होता है, उसी प्रकार सल्लेखना की तपोग्नि द्वारा आचार्य महाराज का जीवन सर्व प्रकार से लोकोत्तर बनता जा रहा था। दूरवर्ती लोग उस विशुद्ध जीवन की क्या कल्पना कर सकते हैं?
सल्लेखना की बेला में महराज केवल प्रशांत मूर्ति दिखते थे। उस समय वे नाम निक्षेप की दृष्टि से नहीं, अनवर्थता की अपेक्षा शांति के सिंधु शान्तिसागर थे। वे पूर्णतः अलौकिक थे।
?छब्बीसवां दिन - ८ सितम्बर१९५५?
आचार्यश्री की सल्लेखना का २६ वां दिन था। कमजोरी बहुत बड़ गई थी। आज के दिन अकिवाट से श्री १०८ मुनि पिहितस्त्रव जी भी आ गए। आचार्यश्री को कमजोरी के कारण बिना सहारा दिए चलना भी मुश्किल हो गया। बम्बई से निरंजनलाल जी रिकार्डिंग मशीन लेकर आचार्यश्री के दर्शनार्थ पधारे।
आज आचार्यश्री का २२ मिनिट मराठी मे अंतिम उपदेश हुआ जी रिकार्ड किया गया।
? स्वाध्याय चारित्रचक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
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