सल्लेखना का ३५ वां दिन - अमृत माँ जिनवाणी से - १२३
? अमृत माँ जिनवाणी से - १२३ ?
"सल्लेखना का ३५ वाँ दिन"
युग के अनुसार हीन सहनन को धारण करने वाले किसी मनुष्य का यह निर्मलता पूर्वक स्वीकृत समाधिमरण युग-२ तक अद्वितीय माना जायेगा।
आचार्य महाराज का मन तो सिद्ध भगवान के चरणों का विशेष रूप से अनुगामी था। वह सिद्धालय में जाकर अनंतसिद्धों के साथ अपने स्वरुप में निमग्न होता था।
आचार्य महाराज के समीप अखंड शांति थी। जो संभवतः उन शांति के सागर की मानसिक स्थिति का अनुशरण करती थी। उनके पास कोई शब्दोच्चार नहीं हो रहा था। शरीर चेष्टारहित था। श्वासोच्छ्वास के गमनागमन-कृत देह में परिवर्तन दिख रहा था। यदि वह चिन्ह शेष न रहता, तो देह को चेतना शून्य भी कहा जा सकता था।
"प्रतीत होता था कि वे म्यान से जैसे तलवार भिन्न रहती है, उस प्रकार शरीर से पृथक अपनी आत्मा का चिंतवन में निमग्न थे।"
उस आत्मा-समाधि में जो उनको आनंद की उपलब्धि हो रही थी, उसकी कल्पना आर्तध्यान, रौद्रध्यान के जाल में फसा हुआ गृहस्थ क्या कर सकता है? महान कुशल वीतराग योगीजन ही उस परमामृत की मधुरता को समझते हैं।
जिस प्रकार अंधा व्यक्ति सूर्य के प्रकाश के विषय में कल्पना नहीं कर सकता, उसी प्रकार अंधा व्यक्ति सूर्य के प्रकाश के विषय में कल्पना नहीं कर सकते। बाह्य सामग्री से यह अनुमान होता था कि महाराज उत्कृष्ट योग साधना में संलग्न हैं। घबराहट, वेदना आदि का लेश नहीं था।
? ३५ वाँ दिन - १७ अगस्त १९५५ ?
आज सल्लेखना का ३५ वाँ दिन था। आज गुफा की दालान में आचार्यश्री को लिटा दिया गया। फलतः उपस्थित हजारों की जनता ने देषभूषण कुलभूषण मंदिर तथा आचार्यश्री के पुण्य दर्शनों का लाभ लिया।
शाम को श्री भवरीलालजी सेठी श्री मिश्रीलालजी गंगवाल का भाषण हुआ। आचार्यश्री ने अपना समय आत्मध्यान में व्यतीत किया।
? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
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