पीठ का दर्शन - अमृत माँ जिनवाणी से - १२१
? अमृत माँ जिनवाणी से - १२१ ?
"पीठ का दर्शन"
एक-एक व्यक्ति ने पंक्ति बनाकर बड़े व्यवस्थित ढंग से तथा शांतिपूर्वक क्षपकराज पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के दर्शन किये। महाराज तो आत्मध्यान में निमग्न रहते थे। वास्तव में ऐसा दिखता था कि मानो वे लेटे-लेटे सामायिक कर रहे हों। बात यथार्थ में भी यही थी।
जब मै (लेखक) पर्वत पर पहुँचा, तब महाराज करवट बदल चुके थे, इससे उनकी पीठ ही दिखाई पड़ी। मैंने सोचा- "सचमुच में अब हमे महाराज की पीठ ही तो दिखेगी। उनकी दृष्टी आत्मा की ओर हो गई है। इस जगत की ओर उन्होंने पीठ कर ली है।"
पर्वत से लौटकर नीचे आए। लोगो को बड़ा संतोष हुआ कि जिस दर्शन के लिए हजारों मील से आए, वह कामना पूर्ण हो गई। कई लोग दूर दूर से पैदल भी आए। आने वालों में अजैनी भी थे।
सब को दर्शन मिल गए, इससे लोगों के मन में संतोष था; किन्तु रह-रह कर याद आती थी कि यदि ऐसी व्यवस्था पहले हो जाती, तो निराश लौटे लोगों की कामना पूर्ण हो सकती थी। वास्तव में अंतराय कर्म का उदय आने पर समझदार व्यक्तियों का विवेक भी साथ नहीं देता है और अनुकूल सामग्री भी प्रतिकूलता धारण करने लगती है।
?३३ वाँ दिन - १५ सितम्बर १९५५?
सल्लेखना का आज ३३ वाँ दिन था। आचार्यश्री के शरीर को आज अशक्तता तो थी ही, नाड़ी की गति भी धीमी रफ्तार से चल रही थी। दर्शनार्थियों के अति आग्रह होने पर भी आचार्यश्री के दर्शन नहीं कराये गए। ऐसे नाजुक हालात पर भी महाराज आत्मसाधना में लीन रहे। जनता को आचार्यश्री की पूर्व में उपयोग में लाई गई पिच्छी व् कमंडल के दर्शन कराये गए।
? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
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