शरीर के प्रति घारणा - अमृत माँ जिनवाणी से - ११५
? अमृत माँ जिनवाणी से - ११५ ?
"शरीर के प्रति धारणा"
अन्न के द्वारा जिस देह का पोषण होता है, वह अनात्मा (आत्मा रहित) रूप है। इस बात को सभी लोग जानते हैं। परंतु इस पर विश्वास नहीं है।
पूज्य शान्तिसागरजी महाराज ने कहा था- "अनंत काला पासून जीव पुद्गल दोन्ही भिन्न आहे। हे सर्व जग जाणतो, परंतु विश्वास नहीं।"
उनका यह कथन भी था तथा तदनुसार उनकी दृढ़ धारणा थी कि- "जीव का पक्ष लेने पर पुद्गल का घात होता है और पुद्गल का पक्ष लेने पर जीव का घात होता है।
इसे वे मराठी में इस प्रकार कहते थे- "जीवाचा पक्ष घेतला तर पुद्गलाचा घात होतो, पुद्गलाचा पक्ष घेतला तर जीवाचा घात होतो।" इस कारण आहार त्याग करने की उनकी प्रवृत्ति हुई।
?२७ वां दिन - ९ सितम्बर १९५५?
आज सल्लेखना का २७ वां व् जल ग्रहण नहीं करने का ५ वां दिन था। दोनों समय आचार्यश्री ने जनता को दर्शन देकर कृतकृत्य किया।
मध्यान्ह में सिर्फ ७-८ मिनिट ही ठहरे और शुभाशीर्वाद देकर गुफा में चले गए।
आज के दिन सूरत से जैनमित्र के संपादक श्री मूलचंद किसनचंदजी कपाड़िया भी दर्शनार्थ पधारे। जनता में आचार्यश्री का रिकार्डिंग भाषण सुनाया गया। विशेष बात यह हुई कि परम पूज्यश्री १०८ आचार्यश्री वीरसागरजी का आया हुआ पत्र आचार्यश्री को पढ़कर सुनाया गया।
? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
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