अभिषेक दर्शन - अमृत माँ जिनवाणी से - १११
? अमृत माँ जिनवाणी से - १११ ?
"अभिषेक दर्शन"
मैंने देखा, कि महाराज एकाग्र चित्त हो जिनेन्द्र भगवान की छवि को ही देखते थे। इधर-उधर उनकी निगाह नहीं पड़ती थी। मुख से थके मादे व्यक्ति के सामान शब्द नहीं निकलता था। तत्वदृष्टि से विचार किया जाय, तो कहना होगा कि शरीर तो पोषक सामग्री के आभाव में शक्ति तथा सामर्थ्य रहित हो चुका था, किन्तु अनन्तशक्ति पुञ्ज आत्मा की सहायता उस शरीर को मिलती थी, इससे ही वह टिका हुआ था। और आत्मदेव की आराधना में सहायता करता था।
सल्लेखना के ३० वें उपवास के लगभग महाराज ने मंदिर जाकर भगवान के दर्शन कर अभिषेक देखा। अंतिम क्षण के पूर्व जिनेन्द्र देव के अभिषेक के गंधोदक को भक्तिपूर्वक ग्रहण किया। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि उन आगमप्राण साधुराज की दृष्टि में अभिषेक का अवर्णनीय मूल्य था। इधर श्रेष्ठ समाधि धारणरूप निश्चय दृष्टि और इधर जिनेन्द्र भक्ति आदि रूप व्यवहार दृष्टि द्वारा आचार्य महाराज की जीवनी अनेकांत भाव को धोषित करती थी।
?तेईसवां दिन - ५ सितम्बर १९५५?
आज सल्लेखना का तेईसवां दिन है। आशक्ति बढ़ती जाती है। फलतः खड़े होने और बैठने में भी सहारा लेना पड़ता था। फिर भी दोपहर में दो मिनिट के लिए बाहर आये, और जनता को शुभाशीर्वाद देकर तृप्त किया। सारा समय गुफा में आत्मध्यान में व्यतीत हुआ।
? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
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