शरीर निष्पृह साधुराज - अमृत माँ जिनवाणी से - ४३
? अमृत माँ जिनवाणी से - ४३ ?
"शरीर निस्पृह साधुराज"
आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ज्ञान-ज्योति के धनी थे। वे शरीर को पर वस्तु मानते थे। उसके प्रति उनकी तनिक भी आशक्ति नही थी।
एक दिन पूज्य गुरुदेव से प्रश्न पूंछा गया- "महाराज ! आपके स्वर्गारोहण के पश्चात आपके शरीर का क्या करें?"
उत्तर- "मेरी बात मानोगे क्या?"
प्रश्नकर्ता- "हां महाराज ! आपकी बात क्यों नही मानेंगे?"
महाराज- "मेरी बात मानते हो, तो शरीर को नदी, नाला, टेकड़ी आदि पर फेक देना। चैतन्य के जाने के पश्चात इसकी क्या चिंता करना?"
यह बात सुनते ही विनय प्रश्नकर्ता ने विनय पूर्वक कहा- "महाराज ! क्षमा कीजिए। ऐसा तो हम नही कर सकते, शास्त्र की विधि क्या है?"
तब उनको दूसरी विधि कही थी कि- "मृत शरीर को विमान पर पद्मासन से बिठाकर देह का दहन कार्य किया जाता है। फिर बोले- "हमारे पीछे जैसा दिखे वैसा करो।"
? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
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