तृषा परिषह जय - अमृत माँ जिनवाणी से - ४४
? अमृत माँ जिनवाणी से - ४४ ?
"तृषा-परीषय जय"
एक दिन की घटना है। ग्रीष्मकाल था। महाराज आहार को निकले। दातार ने भक्तिपूर्वक भोजन कराया, किन्तु वह जल देना भूल गया। दूसरे दिन गुरुवर पूर्ववत मौनपूर्वक आहार को निकले। उस दिन दातार ने महाराज को भोजन कराया, किन्तु अंतराय के विशेष उदय वश वह भी जल देने की आवश्यक बात को भूल गया। कुछ क्षण जल की प्रतीक्षा के पश्चात महाराज चुप बैठ गए। मुख शुद्धि मात्र की। जल नही पिया।
चुपचाप वापिस आकर सामायिक मे निमग्न हो गए। पिपासा के कष्ट की क्या सीमा है? क्षणभर देर से यदि प्यासे को पानी मिलता है, तो आत्मा व्याकुल हो जाती है, यहाँ तो दो दिन हो गए, किन्तु वे उस परीषह को सहन कर रहे थे।
तीसरा दिन आया, उस दिन भी दातार की बुद्धि जल देने की बात को विस्मरण कर गई। इस प्रकार आठ दिन बीत गए।
नवें दिन महाराज के शरीर मे छाती पर बहुत से फोड़े उष्णता के कारण आ गए। शरीर के भीतर की स्थिति को कौन बतावे? शरीर की ऐसी परिस्थिती में भी में वे सागर की भाँति गंभीर रहे आए।
दशवें दिन अंतराय कर्म का उदय कुछ मंद पड़ा। उस दिन दातार गृहस्थ ने महाराज को जल दिया। कारण अन्य आहार योग्य शरीर नहीं था। महाराज ने जल ही जल ग्रहण किया और बैठ गए।
पश्चात गंभीर मुद्रा में उन सधुराज ने कहा था, "शरीर को पानी की जरूरत थी और तुम लोग दूध ही डालते थे। चलो ! अच्छा हुआ। कर्मो की निर्जरा हो गई।" साधुओ का मूल्य आकने वाले सोचें, ऐसी तपश्या कहाँ है? ऐसी स्थिति में भी वे अशांत ना हुए। शांति के सागर रहे।
? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
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