दिव्यदृष्टि - अमृत माँ जिनवाणी से - ४५
? अमृत माँ जिनवाणी से - ४५ ?
"दिव्यदृष्टि"
आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज की चित्तवृत्ति में अनेक बातें स्वयमेव प्रतिबिम्बित हुआ करती थी।
एक समय की बात है कि पूज्यश्री का वर्षायोग जयपुर में व्यतीत हो रहा था। कुचड़ी (दक्षिण) के मंदिर के लिए ब्रम्हचारी पंचो की ओर से मूर्ति लेने जयपुर आए।
महाराज के दर्शन कर कहा- "स्वामिन् ! पंचो ने कहा है कि पूज्य गुरुदेव की इच्छानुसार मूर्ति लेना। उनका कथन हमे शिरोधार्य होगा।"
महाराज ने कहा- "वहाँ महावीर भगवान की मूर्ति स्थापित होगी, ऐसा हमे लगता है, किन्तु तार देकर पंचो से पुनः पूंछ लो।"
महाराज के कहने पर तार दिया। वहाँ से उत्तर आया- "भगवान पार्श्वनाथ स्वामी की प्रतिमाजी लाना।
महाराज ने कहा- "क्यो हम कहते थे पंचो का मन स्थिर नहीं है। अच्छा हुआ, खुलासा हो गया। हमने हमसे महावीर भगवान की मूर्ति के विषय मे कहा था। कारण, हमे वहाँ के मंदिर में महावीर भगवान की प्रतिमा दिखती थीं।"
शिल्पी ने कुछ समय बाद पार्श्वनाथ स्वामी की प्रतिमा बना दी, किन्तु मूर्ति का फणा खंडित हो गया। यह समाचार जब कुचड़ी के पंचो को मिला, तब उन्होंने तार भेजकर लिखा कि जो मूर्ति तैयार मिले, उसे ही भेज दो। तदनुसार मूर्ति रवाना की गई। वह मूर्ति महावीर भगवान की ही थी, जिसमे सिंह का चिन्ह था। मूर्ति को देखते ही सबको आश्चर्य हुआ कि आचार्य महाराज ने पहले ही कह दिया था कि हमे तो महावीर भगवान की मूर्ति दिखती है।
ऐसे ही ज्ञान को दिव्य ज्ञान कहते हैं।सधनसंपन्न तपस्वियों में ऐसी असाधारण बातें देखी जाती हैं।
? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
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