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बंध तथा मुक्ति - अमृत माँ जिनवाणी से - ४२


Abhishek Jain

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?    अमृत माँ जिनवाणी से - ४२    ?


                  "बंध तथा मुक्ति"


            आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज किसी उदाहरण को समझाने के लिए बड़े सुंदर दृष्टान्त देते थे। एक समय वे कहने लगे- "यह जीव अपने हाथ से संकटमय संसार का निर्माण करता है। यदि यह समझदारी से काम लें तो संसार को शीघ्र समाप्त स्वयं कर सकता है।"

         उन्होंने कहा- "एक बार चार मित्र देशाटन को निकले। रात्रि का समय जंगल मे व्यतीत करना पड़ा। प्रत्येक व्यक्ति को तीन-तीन घंटे पहरे देनो को बाँट दिए गए। प्रारम्भ के तीन घंटे उसके भाग मे आया, जो बढ़ई का काम करने मे प्रवीण था। समय व्यतीत करने के लिए बड़ई ने लकड़ी का टुकड़ा लिया और एक शेर की मूर्ति बना दी। दूसरा व्यक्ति चित्र कला मे निपुढ़ था। उसने उस मूर्ति को सुंदरता पूर्वक रंग दिया, जिससे वह असली शेर सरीखा जचने लगा। तीसरा साथी मंत्र वेत्ता था। उसने उस शेर मे मंत्र द्वारा प्राण संचार का उद्योग किया। शेर के शरीर मे हलन-चलन होते देख मंत्रिक झाड़ पर चढ़ गया। उसके पश्चात तीनो साथी भी वृक्ष पर चढ़ गए। शेर ने अपना रौद्ररूप दिखाना प्रारम्भ किया।

        चौथा साथी बड़ा बुद्धिमान तथा मांत्रिक था। उसने अपने मित्रो से सारी संकट की कथा का रहस्य जान लिया। उसने मांत्रिक मित्र से कहा- "डरने की कोई बात नही है। तुमने ही तो काष्ट के शरीर में मंत्र द्वारा प्राण प्रतिष्ठा की थी। तुम अपनी शक्ति को वापिस खीच लो, तब जड़रूप व्याघ्र क्या करेगा?' मांत्रिक ने वैसा ही किया। व्याघ्र पुनः जड़ रूप हो गया।"

       इस द्रष्टान्त का भाव यह है कि स्वयं राग द्वेष द्वारा संकट रूप शेर के शरीर में प्राण प्रतिष्ठा करता है। यह चाहे तो राग द्वेष को दूर करके कर्मरूपी शेर को समाप्त भी कर सकता है। राग द्वेष के नष्ट होने पर क्या कर सकते हैं? राग-द्वेष के नष्ट होते हुए ही शीघ्र संसार भ्रमण दूर होकर जीव मुक्ति लक्ष्मी को प्राप्त करता है।"


?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  ?

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