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रत्नत्रय की नींव शान्त भाव


Sneh Jain

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आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि दर्शन, ज्ञान और चारित्र धारण करना तभी संभव है जब शान्त भाव हो। अत- दर्शन, ज्ञान और चारित्र के पालन से पहले भावों को शान्त रखने का अभ्यास करना चाहिए। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -

40.   दंसणु णाणु चरित्तु तसु जो सम-भाउ करेइ।

      इयरहँ एक्कु वि अत्थि णवि जिणवरु एउ भणेइ।।

अर्थ - जो शान्त भाव को धारण करता है, उसके ही दर्शन, ज्ञान और चारित्र है।, अन्य (समभाव से रहितों) के (इन तीनों में से) एक भी नहीं है, जिनेन्ददेव इस प्रकार कहते हैं।

शब्दार्थ - दंसणु-दर्शन, णाणु -ज्ञान, चरित्तु-चारित्र, तसु-उसके, जा-जो, सम-भाउ-राग द्वेषरूप तटस्थ भाव को, करेइ-धारण करता है, इयरहँ-अन्य के, एक्कु -एक, वि-भी, अत्थि-है, णवि -नहीं, जिणवरु-जिनवर, एउ-इस प्रकार, भणेइ-कहते हैं।

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