संवर और निर्जरा का समय
आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि संवर और निर्जरा करने का अभ्यास आत्मस्वरूप में लीन होकर ही किया जा सकता है। समस्त विकल्प इस आत्म विलीन अवस्था में ही नष्ट होते हैं। ध्यान के समय इसका अभ्यास करने के बाद व्यक्ति धीरे-धीरे प्रत्येक स्थिति में तटस्थ रहने का अभ्यासी हो जाता है और संसारी कार्य करता हुआ भी वह विकल्पों से दूर रहता है। इस प्रकार उसकी संवर व निर्जरा की अवधि धीरे-धीरे बढ़ती रहती है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
38. अच्छइ जित्तिउ कालु मुणि अप्प-सरूवि णिलीणु।
संवर-णिज्जर जाणि तुहुँ सयल-वियप्प-विहीणु।।
अर्थ - मुनि जितने समय आत्मस्वरूप में अत्यन्त विलीन रहता है (तबतक) समस्त विकल्पों से रहित उसके संवर और निर्जरा जान।
शब्दार्थ - अच्छइ-रहता है, जित्तिउ-जितना, कालु -समय, मुणि-मुनि, अप्प-सरूवि-आत्मस्वरूप में, णिलीणु -अत्यन्त विलीन, संवर-णिज्जर- संवर और निर्जरा, जाणि -जान, तुहुँ - तू, सयल-वियप्प-विहीणु - समस्त विकल्पों से रहित।
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