समभाव पूर्वक की गयी क्रिया ही संवर का कारण है
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि ज्ञानी (मुनि) के द्वारा समभावपूर्वक की गयी क्रिया ही उसके पुण्य और पाप के संवर का कारण होती है। देखिये इससे सम्बन्धित निम्न दोहा -
37. बिण्णि वि जेण सहंतु मुणि मणि सम-भाउ करेइ।
पुण्णहँ पावहँ तेण जिय संवर-हेउ हवेइ।।
अर्थ - (फिर) जिससे दोनों (सुख और दुःख) को ही सहता हुआ मुनि मन में सम भाव धारण करता है। इसलिए हे जीव! वह पुण्य और पाप के संवर (कर्म निरोध) का कारण होता है।
शब्दार्थ - बिण्णि-दोनों को, वि-ही, जेण-जिससे, सहंतु -सहता हुआ, मुणि-मुनि, मणि-मन में, सम-भाउ-समभाव को, करेइ-धारण करता है, पुण्णहँ-पुण्य, पावहँ-पाप के, तेण -इसलिए, जिय-हे जीव! संवर-हेउ-संवर का कारण, हवेइ-होता है।
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